Thursday, December 8, 2011

"टूटते सितारों की उड़ान" में मेरी सम्पादकीय......

"साहित्य प्रेमी संघ" के त्तत्वावधान में हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" में मेरे द्वारा लिखा गया सम्पादकीय......

जीवन संघर्ष का दुसरा नाम है और काव्य सृजन संघर्षरत मन की व्यथा के उद्गार।इंसान अपने जीवन में बहुत सी कठिनाईयों को झेलता है और परिवर्तन की ब्यार में बहता बहता एक दिन खुद परिवर्तन का पर्याय बन कर रह जाता है।मै मानता हूँ "परिवर्तन संसार की सृष्टि हेतु नितांत आवश्यक है।"पर वह परिवर्तन बस बाह्य हो तो ठीक है,आंतरिक परिवर्तन हमेशा सफल नहीं हो पाता।क्योंकि आज के आधुनिक परिवेश में हमारे चारों ओर बस कृत्रिमता की चादर बीछी हुई है।यहाँ अध्यात्म का नामोनिशान नहीं है और आध्यात्मिक चेतनता के बिना आंतरिक शुद्धिकरण सम्भव नहीं।दुनिया की रंग में रंग जाना बहुत ही अच्छी बात है पर अपने संस्कारों को ताक पर रख कृत्रिमता का आडम्बर रचना सही नहीं।
आज के परिवेश में लोग ऐसा सोचने लगे है,जितना ज्यादा दिखावा उतना ज्यादा फायदा।पर इस संदर्भ में मेरा सोचना थोड़ा अलग है।मै ऐसा सोचता हूँ कि जो वाकई में सुंदर है,उत्कृष्ट है उसकी सुंदरता तो शाश्वत है।उसे किसी भी बाह्य आडम्बर की आवश्यक्ता नहीं वह तो यूँही एक दृष्टि में किसी के दिल में जगह बना लेगा और जहा तक फायदे की बात है तो दुआओं के सामने किसी भी दवा की कहाँ चलती।जिनके सर पर बड़ों का आशीर्वाद होता है वो अपनी राहों के अवरोध को बस फूल समझ कर आगे बढ़ते जाते है।जो व्यक्ति अपनी स्वयं की वर्तमान स्थिती से संतुष्ट है,वही सफल है।क्योंकि सफलता कुछ और नहीं बस आत्मसंतुष्टि है।
कवि का ह्रदय बहुत ही संवेदनशील और भावुक होता है।वह तो संवेदनाओं का ही वाहक होता है।भला उसे छल प्रपंच की क्या समझ।पर जैसा अक्सर देखा जाता है किसी भी क्षेत्र में यदि आपके दस चाहने वाले है तो हजार आलोचक भी पैदा हो जाते है।मै तो मानता हूँ कि हमारे मित्रों से ज्यादा शुभचिंतक वे हमारे आलोचक होते है जो हर पल हमारी त्रुटीयों को बतलाते है और हम खुद में सुधार करते है।कही ना कही जब ये आलोचक हमारी शिकायत करते है,तो ना चाहते हुये भी हमारे नाम को फैलाते है।
मेरी उम्र अभी बहुत छोटी है और साथ ही एक साफ्टवेयर इंजीनियर हूँ।ये दोनों पहलू मेरे साहित्य सृजन के मार्ग में हमेशा विरोधाभाष उत्पन्न करते है।बहुत से लोग अक्सर पूछते है कि क्या एक टेक्निकल इंसान कवि हो सकता है?तब बड़ी शालीनता से मेरा जवाब होता है।जब बचपन से लेकर आजतक मेरे संस्कार ज्यों के त्यों मुझमे जिंदा है तो क्या बस चार सालों की इंजीनियरींग की पढ़ाई के बाद मै परिवर्तित हो जाऊँगा।ऐसा नहीं है मै आज भले ही दुनिया की बाह्य रंगों में रंगा हुआ हूँ पर दिल से ताउम्र एक आध्यात्मिक विचारधारा से भरा,जमीन से जुड़ा इंसान हूँ।क्योंकि मैने जीवन में अनुभव किये है,इसलिये उस परमशक्ति पर अटल विश्वास भी करता हूँ।इस संदर्भ में महान साहित्यकार प्रेमचंद जी ने कहा है "साहित्य ह्रदय की वस्तु है,ना कि मस्तिष्क की।जहाँ सारे उपदेश और ज्ञान असफल हो जाते है,वहाँ साहित्य बाजी मार जाता है।"जरुरी नहीं कि कवि या साहित्यकार होने के लिये हमारे पास अथाह का ज्ञान का सागर हो बस भावनाओं की दो बूँद ही काव्य सृजन की नींव है।
कवि हर विषयवस्तु को एक अलग नजरिये से देखता है।ठीक ही कहा गया है "जहाँ ना जाये रवि,वहाँ पहूँचे कवि।"अब सुनिये मै ही अपने जीवन का एक दिलचस्प वाक्या आपको बताता हूँ।मैने चार साल जहाँ से इंजीनियरींग की वह जगह औद्योगिक स्थल होते हुये भी कुछ ज्यादा विकसीत नहीं थी।पर जब पहली बार तकनीकयुक्त महानगर में पहुँचा  तो वहाँ के हाव भाव देख अचम्भित रह गया।शुभचिंतको और मित्रों की सलाह से कुछ पहनावा,पोशाक और उठने,बैठने की शैली में परिवर्तन आया।मै धीरे धीरे उस शहर की रंग में रंगने लगा।परंतु वह रंगना बस बाह्य था।अंतरमन तो पहले से ही रंगा हुआ था अध्यात्म और मेरे संस्कारों के रंग में जो मुझे अपने परिवार से मिले थे।चूँकि मेरा ह्रदय भी कवि ह्रदय है तो कुछ पंक्तियाँ इस परिवर्तन पर व्यक्त हो गयी पर कवि की सोच बस उपर तक ना देख गहरे भावों समेट को लायी।शहर के बारे में मेरे द्वारा लिखी कुछ पंक्तियाँ परमशक्ति के प्रति समर्पण के भाव में विलीन हो गई।

"मै तुम्हारे रंग में अब रंग गया हूँ,
संग तेरे ही तुम्हीं में ढ़ल गया हूँ।
कौन सी पहचान मेरी,कौन हूँ मै?
तुम हो मेरे या मै तेरा हो गया हूँ।
मै तुम्हारे रंग में अब रंग गया हूँ।"

अंत में अपने सभी पाठकगणों का मै तहे दिल से आभारी हूँ,जिन्होनें हमेशा अंतरजाल पर मेरी कविताओं और आलेखों को सराहा है।आपका प्रोत्साहन ही है जिसके कारण मै आज "टूटते सितारों की उड़ान" काव्य संग्रह" का संपादन कर रहा हूँ।बड़ी ही मश्क्कत और तल्लीनता के साथ मैने २० भावप्रधान कवियों को इस काव्य संग्रह के लिये चुना है।जिनकी भावनायें दिल पर गहरा असर करती है।यह काव्य संग्रह सागर का वह सीप है जिसको मै गोताखोर की तरह गोते लगाकर,प्रतीक्षारत रहकर और संयम के साथ अनमोल मोती स्वरुप प्राप्त किया हूँ।सभी कवियों और कवियत्रीयों को बधाईयाँ देता हूँ साथ ही प्रेरणा के स्त्रोत श्रेष्ठजनों का तहे दिल से आभारी हूँ।
"साहित्य प्रेमी संघ" के साहित्य पुष्पों की बगिया के कुछ सुगंधित और मनोहारी पुष्प आप सब के समक्ष प्रस्तुत है।आप जरुर बताये कहाँ तक पहुँची इन काव्य पुष्पों की खुशबु........पहुँची न आपके दिल तक।.........धन्यवाद।

Friday, November 11, 2011

यादों के आसमान में जगमगाते गुजरे लम्हों के सितारे

अभी अभी जिस वक्त को याद कर रहा हूँ,आज उससे काफी दूर निकल आया हूँ मै।ना अब वैसी स्वच्छंदता है मेरे उन्मादों में और ना ही प्रेम की वैसी स्मृति है आज।आज कई जिम्मेदारियों में दबा दबा सा ख्वाहिशों का वो परिंदा थोड़ी दूर निले गगन में भी उड़ पाने में असमर्थ है।बस भविष्य की कई उम्मीदें और अवसर मुझे मेरे सामने दिख रहे है।काफी व्यस्त हो गया हूँ मै आजकल।पर अपनी व्यस्तता के बावजूद भी मै अक्सर रात में थोड़ा पहले ही अपने बिस्तर पर चला जाता हूँ,ताकि कुछ क्षण तुम्हारी यादों के आसमान में अपने गुजरे सुनहरे लम्हों के सितारों को चमकता देख सकूँ।स्मृति में ही सही पर अब भी तुम रोज मेरे ख्यालों में आती हो,जब जब मै थक कर आँखों को मूँदता हूँ चैन के लिये तुम्हारी यादें मुझे फिर बेचैन कर जाती है और मै कई साल पिछे चला आता हूँ तुम्हारे साथ साथ।
अब माहौल सुकुन का होता है।ना कोई चिंता,ना कोई परवाह और ना ही कोई चाहत किसी और कि तुम्हारे सिवा।अब बस तुम होती हो और मै।ना कोई भूत होता है और ना ही कोई भविष्य।बस वर्तमान की चौखट पर खड़े हम तुम सुनहरे कल के सपने संजोते रहते है।कभी तुम नाराज हो जाती हो मेरी खामोशि से और फिर मै तुम्हें बतलाता हूँ अपनी खामोशि का कारण।शायद कल की व्यस्तता और जीवन के बदले हुये स्वरुप की झलक पा लेता हूँ मै और कभी कभी सोचने लगता हूँ कल के बारे में।हर रात तुम्हारा इंतजार और चाँदनी ओढ़े रात में चाँद के सामने तुम्हारा दीदार।नहीं भूल सकता मै कभी उन गुजरे लम्हों को।बस प्यार,प्यार और प्यार।ना कोई तकलीफ,ना कोई गुस्सा बस प्यार।जिंदगी में पहली बार इतना प्यार पाकर मै बड़ा अधीर हो जाता हूँ।सोचता हूँ क्या है जिंदगी वर्तमान का यह स्नेहाकाश या भविष्य का धुँधला सा वो संघर्षरत जीवन।काश कितना अच्छा होता सब कुछ बस यूँही इसी पल थम जाता और मै प्रेम के उस अनोखे बाढ़ में खुद को प्रवाहीत कर देता तन,मन और जीवन के साथ।
मौसम का बदलता नजारा और आँखों में बसा अपने प्रेम का सितारा चमकता रहता हर दिन एक नयी मिठास और अपनत्व के संग।अपना रिश्ता धीरे धीरे बहुत ही प्रगाढ़ होता जाता और तुम स्वयं मुझमे विलीन होती जाती किसी स्मृति की कोरी कल्पना सी।अब तुम मेरे सामने ना होती पर तुम्हारा स्मरण हर क्षण मेरे जेहन में बसा होता।कभी मै गीतों में सुनता तुमको तो कभी चाँद में ढ़ूँढ़ता।कभी सपनों में मिल जाती तुम तो कभी दूर गगन से परी सी आती तुम।कई बार पागलपन की हद पार कर जाता मै और बेवजह ढ़ूँढ़ता फिरता तुमको यूँही महफिक महफिल।और जब थक के आँखे मूँदता तो एकाएक तुम सामने आ जाती।हाथ बढ़ाता,छूने की कोशिश करता पर हर बार नाकामी हाथ लगती।व्यस्त रहता पर व्यस्तता में अब भी तुम्हारा स्मरण बड़ा सुकुन देता दिल को।बदल जाता मेरा सारा आवेग और मै फिर शांत हो जाता पहले की तरह।
आज यूँही छुट्टी के दिन अपनी डायरी पलटता रहा और यादों के आसमान में जगमगाते गुजरे लम्हों के सितारों को निहारता रहा।एक खाश तारिख ने एकाएक मुझे चौंका दिया।पता नहीं यह कैसा संयोग था कि बार बार बिछड़ कर हम उस रोज मिल जाते थे।पर इस बार किसी सम्भावना की गुजारिश ना थी क्योंकि अब शायद वो खाश तारिख भी सामान्य सा प्रतीत होने लगा था।उस डायरी में तुम्हारे लिये लिखे हुये मेरे बहुत से प्रेम पत्र थे जो अब तक तुम तक ना पहुँच पाये थे और ना ही मै ही कभी कह सका था उन बातों को तुमसे।वे बातें अकेले में हमेशा मुझसे पूछते "क्या है असमर्थता तुम्हारी?" आखिर क्यूँ ना कह सका तू वो बात अब तक जो न जाने कब से तूने अपने डायरी में लिख रखा है।और मै बस उन्हें ये ही कह पाता "कह दूँगा उसे उस रोज जब वो मेरी खामोशि को भी सुन लेगी।" और मेरे शब्द मेरी निःशब्दता से कुंठित होकर बस पन्नों से झाँकते रहते।
तुमसे दूर जाने के बाद क्या पाया मैने?तुमको खो देने के बाद और क्या खोना है मुझे?तुम थी तो बहुत कुछ था खोने को और पाने को भी।पर अब ना तुम हो और ना ही कुछ खोना और पाना।तुम शायद खुश हो मुझसे दूर होकर और मै अब भी बस बेचैन।तुम्हारी खुशी का कारण है तुम्हारी निश्चिंतता क्योंकि तुम जानती हो मै अपनी मजबूरियों में कुछ सीमित सा हो गया हूँ।पर मेरी बेचैनी का एकमात्र कारण है तुमसे मेरा अलगाव।शायद तुम जानती हो मै तुमसे दूर नहीं रह सकता।पर क्या करुँ समय के सामने मजबूर खड़ा हूँ।
कल रात सारी चिंताओं को भूलाकर और अपनी व्यस्त दिनचर्या से निजात पाने के लिये मै स्वच्छंदता से यादों के आसमान में आया था गुजरे लम्हों के कुछ सितारों को छूने के लिये।कुछ सितारों को मुट्ठी में कैद करना चाहता था जो सुनहरे लम्हें मेरी जिंदगी की कहानी कहते थे।हर एक लम्हें में तुम साथ थी मेरे और मै निर्भिक होकर देखता तुमको।कुछ सितारों की चमक मद्धम थी क्योंकि तुम नहीं थी उनमें और मै तुम्हारा इंतजार कर रहा था।कुछ सितारा आसमान में सबसे ऊँचाई पर चमक रहा था।वह शायद अपने गुजरे प्यार भरे अतीत के सबसे स्वर्णिम क्षणों को व्यक्त कर रहा था।वे सारे मंजर मैने आज भी कैद कर के रखे है अपनी आँखों में।कभी तुम आओ और मेरी आँखों में झाँक कर देख लो "यादों के आसमान में जगमगाते गुजरे लम्हों के सितारे।"   

Saturday, September 10, 2011

तर्क,विश्वास के धरातल पर शंका की लकीरें है

कौन हो तुम?मै नहीं जानता तुम्हें या शायद जानना ही नहीं चाहता।मुझे तो बस "मै" बन कर रहना है,"तुम" नहीं बनना।ऐसी भावनाओं में घिरा आज का मनुष्य स्वयं पोषित करता है स्वयं के अभिमान को।वह नहीं चाहता शाश्वत को जानना,वह तो बस अपने द्वारा बनाये गये स्वयं की कृत्रिम नगरी में आजीवन रहना चाहता है।सांसारिक ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर स्वयं को सर्वस्व मान लेना ही हमारा पतन के द्वार में प्रथम प्रवेश है।हर चीज को तर्क की कसौटी पर परखता है और स्वयं के गुरुर में मदमस्त मानव सर्वशक्तिमान परमात्मा की अद्भूत सता को भी नकार बैठता है।उसका "मै" ईश्वरीय सता के समक्ष भी नतमस्तक नहीं हो पाता और तर्क की धुरी पर जीवनयापन करता एक दिन स्वयं का अस्तित्व भी खो बैठता है।
जहाँ सम्पूर्ण विश्वास है और आत्मिक समर्पण है,वहाँ किसी भी प्रकार के किसी तर्क की कोई जगह ही नहीं।क्योंकि वहाँ मै स्वयं को परमात्मा के प्रकाश में लोपित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।वहाँ ना ही कोई शंका भाव होती है और ना ही कोई भय।निर्भिक होकर स्वयं आत्मा,परमात्मा की आधारभूत सता में लीन हो जाती है।वही अवस्था जीवन का अंतिम पड़ाव होता है।वहाँ सारी सांसारिक ईच्छायें और आकांक्षायें नष्ट हो जाती है।बस एक प्रकाशपुन्ज ही दृष्टिगोचर होता है,जो हर भाव से परे और शाश्वत होता है।विश्वास तभी जगता है,जब संतुष्टि मिलती है।जब यह लगने लगता है कि यह कार्य मुझे संतुष्टि प्रदान कर रही है।तब वहाँ विश्वास के धरातल का निर्माण होता है।विश्वास के धरातल पर ही सृष्टि की कल्पना संभव है।जहाँ संदेह है अगर थोड़ा सा भी तो आत्मिक संतुष्टि नहीं है।एक भय का आवरण है जो हर पल प्रेषित करता रहता है तर्क की इच्छा।
तर्क मनुष्य स्वयं के अभिमान को पोषित करने हेतु करता है या उस सर्वशक्तिमान को नकारने के लिए।क्योंकि तर्क और समर्पण के भाव बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत है।जहाँ समर्पण में स्वयं का सर्वस्व पूर्णरुपेण इश्वर को समर्पित होता है और खुद की बागडोर परमात्मा के हाथों में।वही तर्क के भाव में बस दूरी का एहसास होता है,स्वयं का उस ईश्वर से।कहते है कि "जब तक आंतरिक मन पूरी तरह रम नहीं जाता परमात्मा के नशे में तब तक ईश्वर रुपी राम का सान्निध्य संभव नहीं।"मीरा की तरह बेसुध होना होगा,तब तो कान्हा हर पल साथ होंगे।साथ ही स्वयं को भूल कर बस अपने आधार के अस्तित्व में स्वयं का अस्तित्व देखना होगा।तब ही इस सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिल सकती है।वरना अपने अभिमान को पोषित करते रहो और बार बार जन्म,मरण के बंधनों में फँसे हुये हर बार आकर इस संसार में अपने कुकर्मों के लेखा जोखा का विस्तार करते रहो।यह जीवन का सार नहीं है।यह तो मायाजाल का वह भँवर है,जो कभी भी नहीं चाहता कि तुम इससे बाहर हो जाओ।
कलियुग में आज कई ऐसी मानसिकताओं ने धर कर लिया है,जो हर पल मानव की क्रूरता और पाश्विकता को चिन्हित करती है।व्यक्ति तर्क कब करता है जब वह कमजोर होता है।जब उसे ये एहसास होता है कि मेरे अहंकार की अब पराजय हो सकती है,वह तर्क का सहारा लेता है।और अपने सांसारिक धागों में पिरोये कृत्रिम बातों का हार पहनाकर स्वयं को विजयी घोषित करता है।कहते है "मौन अनंत की भाषा है।"ज्ञानी पुरुष ज्यादा नहीं बोलते ना ही वो कोई तर्क करते है।क्योंकि उन्हें यह ज्ञात होता है कि सच क्या है और मिथ्या क्या।वे शंका या संदेह के किसी दोराहे पे खड़े नहीं होते है।उन्हें तो शाश्वत सत्य का पता होता है।वो तो बस सामने वाले के तर्क को चुपचाप सुनते रहते है और उसकी दैनिय दशा पर तरस खाते है।वो जानते है कि बेचारा उलझा हुआ है स्वयं में।वह जिस सांसारिकता को सत्य मान कर उसका पक्ष ले रहा है।वही सांसारिकता एक दिन उसके अंत के समय मृत्यु शैय्या का कार्य करेगी।
तार्किक व्यक्ति कहता है "मन चंगा तो कठौती में गंगा।"पर मेरा कहना है इन पंक्तियों की सार्थकता तभी है जब आप रैदास है।और आपका मन वैसा ही निर्मल और स्वच्छ है।वरना यह तर्क निराधार है,जिसकी कोई भी धारणा नहीं।हाँ अगर तुम तर्क से विवेकानन्द बन जाओ तो तर्क करो।पर उस तर्क में भी विवेकानन्द की तरह सत्य के खोज की प्रबल इच्छाशक्ति होनी चाहिये।वह तर्क ऐसा हो जो तुम्हारे हर शंकाओं का समाधान कर सके ना कि स्वयं के अभिमान को पोषित करता रहे।"तर्क विश्वास के धरातल पर शंका की लकीरें है।"जब तक तर्क है तब तक हमारा परमात्मा से कोई समपर्क नहीं।क्योंकि ईश्वर उसे बस एक पल में "आई गो" कह देता है जिसमें उसका अभिमान "इगो" भरा होता है।तब तक विश्वास के धरातल पर समर्पण के बीज अंकुरित नहीं हो सकते जब तक कि तर्क द्वारा शंका की लकीरें धरातल को कमजोर करती रहे।स्वयं को भूल उसका हो जाना ही समर्पण है।और उसको भूल स्वयं के अभिमान को पोषित करने का एक जरिया है तर्क।जबकि हास्यास्पद बात यह है,कि जिस स्वयं को जीवित रखने हेतु तर्क की मानसिकता का जन्म होता है।उस "स्वयं" का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं।  

Friday, August 26, 2011

ढ़ूँढ़ रहा हूँ अपने दर्द की कोई शक्ल

वह स्पर्श भूला नहीं हूँ मै या शायद मेरे जेहन में इस कदर समा गया है वो कि उससे विरक्ति स्वयं से वैराग जैसा है।दूर से आती हुई मदमस्त पवन हौले से मेरे कानों में कुछ कहती है और हर बार सुनने की कोशिश में उस स्पर्श का स्मरण हो आता है जो हुआ था मुझको उस पल जब तुम दूर थी मुझसे।वह स्पर्श शायद मेरे दर्द के मंजरो को खुद में समेटे हुये है।ज्यों छुता है मुझे सारा शरीर अद्भूत स्पंदन से कंपित हो उठता है।ह्रदय की झंकारों में एक नयी वेग का आगमन होता है जो बहा ले जाता है उन सभी यादों को जिन्हें न जाने कब से ह्रदय में कैद कर के मै खुद को निश्चिंत समझ बैठा था।
खुद से हार कर आज पेश करना चाहता हूँ अपने दर्द को तुम्हारे समीप।जिससे तुम्हें भी दर्द की शक्ल में अपनी परछायी दिख जाये और एहसास हो इसी बहाने मेरे अर्थपूर्ण दिवानेपन का।दर्द को आकार देना शायद थोड़ा मुश्किल है मेरे लिए क्योंकि जब तुम दूर होती हो तो विरह लगन में तपता हुआ सिकुड़ जाता है वो और जब पास आती हो तो तुम्हें खुद में अभिव्यक्त करने की असमर्थता से व्याकुल होकर अपना आयाम बढ़ाने की ललक में फैल जाता है।कभी यह दर्द मेरी आवाज में घुल जाता है,तो कभी नैनों में अश्रु बन नजर आता है।पर हर बार अपनी भिन्न भिन्न रुपों के संग यह मेरे ह्रदय पर आघात करता रहता है।कही ऐसा ना हो कि इस दर्द को शक्ल देता देता मै खुद अपनी स्वयं की शक्ल ही खो बैठूँ और दर्द का एक गुबार बन कर सहेज लूँ स्वयं में विरह और प्रणय के हर एक उस क्षण को जिसमें दर्द की सर्द रातों का अँधेरा मेरे भविष्य के सभी रास्तों को गुमशुदा कर दे।
बिल्कुल अकेला हूँ मै आज अपने कमरे में खुद के संग।रात की चादर ओढ़े बादलों का झुंड भी आज अपना दर्द बयां कर रहा है।सामने प्याले में रखी हुई है मेरे दर्द की दवा।पर न जाने क्यों वह दवा भी मुझे किसी मर्ज सी लग रही है आज।शराब को कैसे कराऊँ स्पर्श अपने उन होंठों का जिनपर बस तुम्हारा अधिकार है।तुमने ही शायद सौंपा था इन्हें रस की अनंत प्यालियाँ जिनकी तृप्ति मधु की इन प्यालियों में कहाँ?ये तो प्यासा ही छोड़ देंगे बीच राह में मुझे।पर तुम्हारे होंठों का वह मादक रसपान आज भी अंदर तक कही तृप्ति का एहसास कराता है मुझे।सोचता हूँ क्या करुँ,क्या ना करुँ?पर स्मरण में भी तुम्हारे स्पर्श का सुख मुझे संकोचित कर देता है ऐसा करने से।शायद कुछ दबा हुआ है इन यादों के साये में जिन पर तुम्हारा अक्स अब भी चिन्हीत हो रहा है।
हिमगिरी के हिम पिघल कर जलकण बनते जा रहे है और मेरे दर्द का हिमखण्ड आँखों से आँसू बन बरस रहा है।पर अपने खारेपन के कारण वह भी असमर्थ है मेरी प्यास बुझा पाने में।सागर के इतने पास होकर भी मै कितना प्यासा हूँ यह तो शायद मेरी प्यास को ही पता है।यह प्यास भी मेरे दर्द की ही एक शक्ल है,जो तुम्हारे सान्निध्य से ही बुझ सकती है।पता है तुम्हारा स्पर्श बस मेरे तन को नहीं झकझोरता बल्कि रुह को भी एक पल अचेतन सा बना देता है और कुछ पल शीथिल बना यह मुकदर्शक की तरह स्वयं की पीड़ित अवस्था को देखता रहता है और सोचने को विवश हो जाता है,कि क्या यह मेरे दर्द की कोई शक्ल है या मेरे शक्ल में ही दर्द का अक्स छुपा हुआ है।दर्द का पर्वत बन गया हूँ मै तुम बिन और यह तुम्हारे पास से आने वाली हर एक यादों की हवाओं से टकरा कर कमजोर होता जा रहा है दिन पर दिन।
घुल गयी है पीड़ा की कुछ सर्द लकीरें मेरे अंतरमन में और उन लकीरों में अब भी छुपा है अपना कल जो अक्सर मेरे ख्वाबों में आता था और मै तभी तुम्हें यह बताने की कोशिश करता और हर बार जाग जाता था।सागर की गहराईयों में बहती मेरे दर्द की कस्तियाँ कही मझदार में जाकर असमर्थ हो तुम्हें पुकारती है और तुम किसी किनारे सा आश्रय देती हो उन्हें।तुम्हारे पास होते हुये मुझे ऐसा एहसास होता जैसे ये पल अब यूँही थम गया है।एक पल भी आगे नहीं बढ़ेगा पर एकाएक जब मेरी हथेली खाली होती और तुम दूर चली गयी होती हो तो इन हथेलियों पर बस आँसूओं की दो बूँद ही नजर आती है।अपने दर्द को शक्ल देते देते मै अब थक सा गया हूँ।जैसे मानों वजनदार चीज को खुद में कही धारण किये चला रहा हूँ न जाने कब से।अब जब तुम नहीं हो पास तब मै चाहता हूँ सारा वजन दिल का हल्का कर लूँ और अकेला कमरे में खुद से बातें करता करता सारे राज खोल दूँ मै अपने सामने जो कब से दिल की गहराईयों में दफन थे।शायद कही कोई राज छुपाये हो खुद में मेरी दर्द की शक्ल का कोई स्वरुप।

Sunday, August 14, 2011

"मै अब तुमसे भी बड़ा हो गया-माँ"

कोमल भावनाओं की जितनी भी अभिव्यक्तियाँ मेरे अंतरमन में समायी है,वो सब तुम्हीं से पाया है मैने।तुम्हीं ने आभास कराया है मुझे मेरे अस्तित्व का और सौंपा है मुझे मेरा वजूद।तुम्हारे बिना मै स्वयं की कल्पना भी नहीं कर सकता माँ।माँ मेरी कोई भी पहचान बस तुम तक ही सीमित है।आज भले बहुत बड़ा हो गया हूँ मै पर तुम्हारे स्नेह और आशीर्वाद के बिना सब कुछ व्यर्थ है।ये देखो ना माँ मै कितना लम्बा हो गया हूँ।तुम तो मेरे सामने छोटी हो गयी माँ।बचपन में तुम मेरी उँगलियों पर हाथ रखकर कहती बेटा तुम्हें इतना बड़ा होना है।और आज सच में मै तुमसे बड़ा हो गया माँ।कल तक दो कदम भी चलने को जिन छोटे छोटे हाथों को तुम्हारी हाथों की जरुरत पड़ती थी।वो आज खुद चल रहा है माँ।सच में मै तुमसे भी बड़ा हो गया माँ।बहुत बड़ा जिसमें शायद तुम बहुत छोटी हो गयी हो और अब तुमसे दूर रहते रहते शायद याद भी नहीं करता मै तुमको।
अक्सर तुमको चिंता होती मेरे बारे में।अक्सर तुम मेरे अच्छे के लिएँ सोचती और मै तुम्हारी इस चिंता को कमजोरी समझ हर बार तुम्हारा दिल दुखा देता।मुझे लगता कि मुझे खुद से दूर कर के अपने दिल से भी दूर कर दिया है तुमने।पर यह कभी ना समझ पाया कि हर पल जो मेरे दिल में धड़कन बन कर धड़कती रहती है।वो तो तुम्हीं हो माँ।जो हर पल मेरे साथ होती और जब कोई परेशानी होती तो बस दिल पर हाथ रख देता और सुकुन मिल जाता मुझे।कभी कभी जब अकेला होता और दुनियादारी को कुछ पल पिछे छोड़ खुद के बारे में सोचता।तो मुझे मेरे हर एक विचार में मुस्कुराती,प्यार से अपने पास बुलाती तुम ही नजर आ जाती माँ।जो शायद मेरी सारी गलतियों को माफ कर फिर से मुझे अपनी ममता के स्नेहाकाश में चैन और सुकुन देती।मै गुनहगार हूँ आज माँ तेरा और तेरी ममता का।क्योंकि मैने हर बार बस तुम्हारे प्यार के बदले तुम्हारा दिल दुखाया है।और अपने वर्चस्व की लड़ाई में हर बार हारा हूँ मै तुम्हें जलील कर खुद से।
कल जब तुम्हारी भेजी हुई तस्वीरों को देख रहा था।एकाएक तुम्हारी तस्वीर पर नजर रुक गयी।मै मायूस हो गया माँ।ये देखकर कि तुम्हारे कोमल प्रफुल्लित चेहरे पर झुर्रिया आने लगी है।क्या माँ मै इतना बड़ा हो गया कि तू बूढ़ी हो गयी।नहीं माँ मै अभी भी तुम्हारा छोटा सा लाडला बन कर ही रहना चाहता हूँ।मै रोक दूँगा वक्त के सारे पहियों को,मै थाम लूँगा हर एक उस लम्हें को जिसमें तुम्हारी गोद में खेलता मै नन्हा सा हूँ।मै तुम्हें उम्र के परावों में उलझने नहीं दूँगा।पता है माँ मुझे तुम्हारे चेहरे पर मायूसी का कोई भी भाव तनिक भी नहीं सुहाता है।क्यों मायूस हो तुम?क्या चिंता है तुम्हारी?यही न कि मै अच्छा बन जाऊँ और जिन्दगी भर खुश रहूँ।तू चिंता मत कर माँ मै तुम्हारे सभी अरमानों को पँख देकर एक दिन व्योम की सैर जरुर करवाऊँगा।
उलझनों में उलझी मेरी जिन्दगी नहीं देती है समय खुद के बारे में सोचने की भी और एक तू है जो खुद के बारे में कभी नहीं सोचती बस मेरे बारे में सोचती है।माँ आज एक बात मेरे दिल में है,जो मुझे तुमसे कहनी है।मत रुठना कभी अपने लाडले से माँ।तुम रुठ जाती हो जब तो बहुत बुरा लगता है।पता है तुमको पूरे दिन इंतजार करता हूँ कि कब तुमसे बात होगी और मै ये बताऊँगा ,वो बताऊँगा।और बस तुमसे बात कर लेता हूँ सच में आत्मा को संतुष्टि मिल जाती है।सब कहते है कि अब तू बड़ा हो गया है।छोटा बच्चा नहीं जो हर छोटी बड़ी बात माँ से बताता है।पर उन्हें क्या पता मै आज भी तेरे सामने कितना छोटा हूँ।एक तू ही तो है सारी दुनिया में माँ जिसकी हर एक बात में बस "हाँ" है मेरे लिये।जिसकी सारी खुशियों की मँजिल बस मै हूँ,बस मै।
कभी कभी बहुत डर जाता हूँ यह सोच कि क्या होगा मेरा कल जब तू ना होगी।माँ सच में बहुत अकेला हो जाऊँगा मै।तुम्हारे बिन किससे झगरुँगा माँ?तुम्हारे बिना किससे अपनी छोटी बड़ी हर बात कहूँगा मै?कौन होगा अब बस मेरे बारे में सोचने वाला?किसकी आँचल में सबकुछ भूल बस चैन की नींद सोता रहूँगा?किसकी गोद में रहकर मुझे स्वर्ग की शानोशौकत भी फीकी लगेगी?घर पहुँच कर बड़े दिन बाद किससे मिलने की बेसब्री होगी?अब ना कोई इंतजार होगा तुम्हारी किसी फोन का और ना ही तुम्हारी प्यारी सी आवाज सुन पाऊँगा मै।बस अपनी धड़कनों में तुझे महसूस कर थोड़ा सुकुन मिलेगा तुम्हारे साथ होने का पर अगले ही पल तुम्हें सामने ना देख कर इन आँसूओं को कैसे रोक पाऊँगा मै?तुम्हीं कहो ना माँ क्या करुँगा मै?इसलिए माँ आज कुछ माँगना चाहता हूँ तुमसे कि बस हरदम यूँही अपने आँचल की ओट में छुपाये रख मुझे।बाहरी दुनिया में दम घुटने लगता है मेरा।


समय का चक्र निरंतर बढ़ता बढ़ता जाने कहा से कहा लेकर आया है हमे।कल तक एक पल भी तुमसे दूर नहीं रह पाता था मै और आज न जाने कितने सालों से दूर हूँ तुमसे।हर वो उमंग त्योंहारों का और उत्साह अपनों के साथ होने का भूलता जा रहा हूँ मै।वक्त के दरिया ने बीच मझदार में लाकर बिल्कुल अकेला छोड़ दिया है मुझे।कोई किनारा नजर ही नहीं आता।कुछ पाने की चाहत में सब कुछ गँवाता हुआ मै कैसा बन गया हूँ समझ ही नहीं आता।
निःशब्द हूँ तुम्हारे समक्ष आज अपनी भावनाओं की चिता जला कर,दुनियादारी के बोझ तले दब गया हूँ मै।माँ आज फिर मुझे तेरे उन ऊँगलियों की जरुरत है,जो बचपन में मुझे चलना सिखाती थी।मुझे आज फिर तेरी उस मुस्कुराहट की जरुरत है,जो मुझे निश्चिंत कर देती थी कि हो ना हो मै जो भी कर रहा हूँ सही कर रहा हूँ।आज तेरी याद ने मुझे याद दिलाया मेरे खुद के होने का।क्योंकि बड़े दिन हो गये थे मेरे खोये हुये।न जाने किन पगडंडियों से होता हुआ किस जर्जर सी झोपड़ी में रहने लगा था मै जो बाहर से बड़ा सुनहरा दिखता था पर अंदर कुछ नहीं था।माँ आज भले मै तुमसे कद में काफी बड़ा हो गया हूँ पर अब भी मेरा बचपन जिंदा है मुझमें जो मुझे तेरी ममतामयी मूरत का आभास कराता है।और हर रोज तेरी इस ममतामयी मूरत को अपने आँसूओं के दो फूल चढ़ा आता हूँ मै आज भी।  

Wednesday, August 3, 2011

शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी

मन कभी बिल्कुल आवारा सा बन न जाने कहाँ कहाँ से घूम कर आता है।कभी तुम्हारे साथ का पहला दिन याद करता है तो कभी उस एहसास को खोजने निकल पड़ता है जिसमें तुमसे मिलन के हर एक क्षण का लेखा जोखा अब भी वैसे ही यादों के पन्नों पे ज्यों का त्यों लिखा हुआ है।धीरे धीरे सम्मोहीत होता जाता है ये मन तुम्हारी मनगठंत कल्पनाओं में कही खोकर।पर जब हाथ बढ़ाकर छुता है तुमको तब कुछ नहीं होता है उसके पास सिवाय तुम्हारी यादों के।ये पूरी जिन्दगी क्या यह तो सात जन्म भी यूँही गुजार देगा बस तुम्हारी यादों के संग।पता नहीं कैसा मनभावन आईना है यह तुम्हारी यादों का जिसमें वो खुद को हर बार देखकर एक नयी ताजगी और उमंग के संग प्रफुल्लित हो उठता है।शायद बीते दिनों में स्वयं के बौनेपन को देख आज का यह विशाल मन अहंकारवश हँस पड़ता है।पर उसी हँसी में छुपी होती है एक ऐसी उदासी जो बस स्वयं ही देख पाता है वो और बेचैन होने लगता है।
आकर्षण के चरमोत्कर्ष पर हमारा प्यार मिला था कभी।जिसका आधार बस मै था और तुम थी।तुम वो थी जो अक्सर मेरी कल्पनाओं में किसी धुँधली तस्वीर सी आ जाती और मुझसे पूछती "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" पर मै कुछ पल बिल्कुल शांत रहता।क्योंकि अब तक ना मुझे स्वप्न पर विश्वास था और ना ही जन्म जन्मांतर के अटूट रिश्तों की समझ।अब तक तो बस प्यार की परिभाषा मेरे लिये कुछ वैसी थी जहाँ बस आनंद का आगमन था विरह या संताप ना था।क्योंकि अभी अभी तो आया था मै प्यार के इस अनूठे खेल में शामिल होने।शायद अभी बहुत से नियम और शर्तों को मै नहीं जानता था।अभी बहुत ही कच्चा था मै,परिपक्वता आनी बाकी थी।
हर रात एक अनोखे एहसास को तकिये से दबा कर सो जाता उसपर और फिर वैसे ही तुम्हारी धुँधली सी छाया मेरे सामने आ जाती और पूछने लगती "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" पर मुझे कहा याद था कोई जन्म पुराना।मेरी यादाश्त तो इतनी कमजोर थी कि रात का देखा हुआ ख्वाब भी भूल जाता मै सुबह तक।ऐसे में पिछला जन्म याद करना जरा मुश्किल था।यूँही जीवन में कई विचारों और भावनाओं से गुजरता हुआ एक दिन मिल गया तुमसे।याद है तुम बस स्टाप पे अकेली खड़ी बस के आने का इंतजार कर रही थी और मै तुमसे बिल्कुल अपरिचीत होते हुये भी चुपचाप तुम्हें निहारे जा रहा था।शायद कोई अदृश्य सा बंधन खीँच रहा था मुझे तुम्हारी ओर।एक पल हवा के झोंकों से तुम्हारी जुल्फ तुम्हारे चेहरे को ढ़ँकने लगी।मन हुआ की दौड़ कर जाऊँ और उन्हें सँवार दूँ।पता नहीं किस अधिकार से ऐसा करने को सोच रहा था मै।पर अगले ही क्षण एहसास हुआ तुमसे परायेपन का।
अब मुझमें एक नयी भावना का जन्म हुआ जो शायद इंतजार था।घंटों बस स्टाप पर करता रहता तुम्हारे आने का इंतजार और जब तुम आती तो यूँही निहारता रहता और तुम्हारे जाने तक एकटक देखता रहता तुमको पर कुछ नहीं कह पाता।शायद मै भूल गया था अपना कोई बिता कल पर इन नजरों को शायद अब भी याद थी वो सारी गुजरी हुई अपनी कहानी।शायद सच में तुमसे किसी जन्म का नाता था मेरा।वरना यूँही लाखों की भीड़ में क्यों तुमपे ही आकर निगाहें अटक जाती।एक रोज जब टूट गया मेरी अधीरता का बाँध तो मैने पूछा तुमसे "क्या तुम मुझे जानती हो" और तुम बड़े ही परीचित से लगे इस दिल को उस अपनी एक हँसी के साथ।उस रोज पहली बार तुम्हारे साथ बस पर बैठा मै तुम्हारी मँजिल तक गया और ऐसा लगा कि कभी की कोई अधूरी प्यास थी दबी जिसे दो बूँद नसीब हो गया हो।तुम्हारी हर अदा बोलने की,देखने की और सोचने की।न जाने क्यों कुछ जाना पहचाना सा लगा।ऐसा लगता कि कभी तुमसे मिल चुका हूँ मै पहले और अब तो मेरे ख्यालों में आने वाली वो तस्वीर भी कुछ साफ साफ सी दिखने लगी।और अब समझ आने लगा मुझे वह प्रश्न "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।"
आज सूने मन के आँगन की दहलीज पर बैठा मै सोच रहा हूँ कि क्या सच में किसी जन्म में हम मिले थे तुमसे।आज जब तुम मेरी नहीं हो।किसी गैर की हो और अब शायद तुम भूल भी गयी होगी मुझे।पर उस प्रश्न की सार्थकता आज भी है कि "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" तब तुम सिर्फ मेरी थी और तुम पर मेरा पूरा अधिकार था।पर न जाने क्यों आज तुम मेरी नहीं हो।हो ना हो पर जरुर अपने वादे में खोट हुई होगी जब हम सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किये होंगे।पर बहुत कम दिन की जानपहचान में भी ऐसा लगता था मुझे की तुम मेरी कोई पूर्वपरीचित हो।मेरे रुह की तमन्ना भी कुछ सुकुन सा पा लेती जब कर लेती आत्मसात उस एहसास को खुद में जिसमें तुम मेरे साथ हो हर पल।मै आज फिर इंतजार कर रहा हूँ किसी नये जन्म का और इस बार मिलना तो यूँ ना मिलना जैसे मिली हो इस बार।इस बार सारे बंधनों को तोड़कर तुम बस मेरी "तुम" बन कर आना और "मै" तो हमेशा से तुम्हारा हूँ  और रहूँगा।शायद इस वजह से कि किसी जन्म में हम मिले थे कभी।  

Wednesday, July 27, 2011

तुमने क्या मुझे याद किया है अभी

अभी-अभी मिली है खबर मुझे तुम्हारे ना होने का और मेरा वजूद कुछ क्षण बिल्कुल सन्न सा हो गया है यह जानकर कि अब तक बस तुम्हारे बिना जी रहा था वो।कुछ अलग हो गया है उससे।शायद कोई वजनदार चीज थी वो।जो कभी कभी कोमल दिल पर भी आघात कर देती थी।पर अब उसके जाने के बाद सब कुछ बेहतर है।अब वो भावनाओं की जमीन नहीं है,जिनपर प्यार की खेती होती थी कभी।पर अब बस मन के विस्तृत आकाश में कुछ यादों के बादल बचे हुये है।जो मेरी छत से ज्यादा दूर नहीं है।कभी कभी तो हाथों से ही हिला देता हूँ उनको और बरस बरस कर वे भींगो देते है मुझे बेमौसम ही अक्सर।
इन आँखों का खोजना न जाने कब पूरा होगा जब आराम से इन्हें मूँद सो सकूँगा मै।कभी तुम्हारे घर के बहुत करीब जाकर लौट आते है ये।शायद शर्म आती हो इन्हें।कही कोई देख ना ले।पर जब कभी भी खोजते खोजते थक जाते है तुम्हें सागर के किनारे जाकर अपनी कुछ मोतियाँ सौंप आते है उसे तुम्हारी यादों के सीप का।और इनकी अभिव्यक्ति की सार्थकता तब होती है जब तुम्हारी खामोश तस्वीर से दो बात कर लेते है आँखों ही आँखों में।कही यह पूछते है शायद "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी"।
अक्सर रात को जब प्यास लगती है मुझे और पानी पीने के बाद सरकती है तब लगता है कि हो ना हो पर जरुर तुमने याद किया है अभी।साँसों का अटकना तेज हो जाता है और ऐसा लगता है साँसों के कई विभाजनों में विभक्त हो कर रह गया है तुम्हारे यादों का हर एक मंजर।और कभी कभी बड़ी देर तक आती रहती है हिचकी सी।उसी क्षण भेजता हूँ मै तुम्हारे पास एक सवाल "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी"।और तुम्हारे जवाब की राह देखते देखते कब नींद आ जाती है पता ही नहीं चलता।नींद टूटने पर फिर महसूस होती है वही प्यास जिसने मन में कोई प्रश्न लाया था और तुम याद आ गयी थी फिर आज की रात।
जल रही है मद्धम सी प्रकाश कोणे में।बहुत अँधेरी रात है और मै अकेला चला जा रहा हूँ कही।शायद दीप लिये तुम ही खड़ी हो राह में क्या?जो मेरा इंतजार कर रही है और मै तो रौशनी की चकाचौंध में तुम्हारा चेहरा ही नहीं देख पा रहा।पर बस तुम्हारी दो घूरती आँखें दिख जाती है मुझे।उन्हीं आँखों से होकर उतरना है तुम्हारी धड़कनों में और आज खुद कैद हो जाना है तुम्हारी कम्पनों में।कभी कभी धड़कना भी है संग उनके और कभी तड़पना भी है याद में तुम्हारे।वैसा कोई निश्चित समय नहीं है जो हमारे द्वारा रखा गया था याद करने का और ना ही सीमित ही है सीमाएँ उसकी।पर अब भी तुम्हारी प्यास कुछ सीमित है,जो बस तुम्हारे आने से पूरी हो सकेगी।
बल्ब जल रही है दिवार पे अड़ी और पँखा चल रहा है छत से टँगा।उसका हर बार घुमना मेरी परिक्रमा को नया आयाम देता है और उसे एकटक देखता देखता मै कुछ पल पिछे हो आता हूँ कभी कभी।कभी कभी यह अनुभव सुख देता है पर कभी खुद पे ही गुस्सा आता है मुझे अपने पिछे जाने पर और पुरानी आलमारी में बँद फटे हुये कपड़ों सी तुम्हारी यादों को बार बार सीने से।पर नाइट बल्ब की मद्धम प्रकाश फिर सूचित करती है शांत हो जाने को।देर रात तक जागने की यह आदत सही नहीं है शायद तुम्हारे जाने के बाद।करकती ठंड में भी कम्बल में दुबका मै बस यही सोचता रहता कि काश ऐसा होता आज का दिन कुछ इस तरह आता कि सारे छाये हुये कुहासों को चीर देता वो।और धुँधली होती तुम्हारी छवि फिर मेरे अंतरमन में बस जाती आजीवन के लिए।और जीवन का गुजारा इस ख्वाब के संग हो जाता कि यह सच होगा एक दिन।महकती रहती अब भी मेरी हथेली जैसे मानों तुम्हारे चंदन से तन का स्पर्श कर लिया हो उन्होनें।
एक कसमकस सी है दबी अब भी दिल में कि "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी" या यूँही आती है हिचकीयाँ मुझे।तुम याद करती हो शायद तभी तो हम भी हँसते है कभी वरना उदासी भरी राहों में कभी मुस्कुराहट होती ही नहीं।कल मिला था मै तुमसे वही अपने छत की बालकोनी में खड़ी तुम किसी का इंतजार कर रही थी।क्या वह इंतजार मेरे लिए था या यूँही मै खुद को तुम्हारा प्यार समझ बैठा था।पर यह मेरा सपना नहीं है कि तुम अब नहीं हो।यह सच है जिसपर चलता चलता मै बहुत मजबूत हो गया हूँ।चट्टानों सा कठोर हो गया है मेरा वजूद पर अब भी पत्थरों में तरासता है वो तुम्हारे कुछ अनकहे अक्षर जो लब्जों पे आकर न जाने कब से रुके हुये है।कुछ अजीब से एहसासों से भरे है वे जो ना मुझे चैन से हँसने देते है और ना रोने बस मौन रहने को कहते है।

Sunday, July 17, 2011

महाकाल की प्रेम क्रीड़ा:-"सृष्टि और प्रलय"

जगत में काल का स्वरुप अचिन्तय है।जिसके वश में पूरा संसार हर पल सृष्टि से प्रारम्भ होकर प्रलय की ओर बढ़ता जाता है।सृष्टि दिवस के आरम्भ जैसा है और प्रलय अवसान सा।पर क्या?है कोई ऐसा जो इस काल के बंधन से मुक्त है।जिसका ना कोई आरम्भ है और ना कोई अंत।काल के भी काल का लेखा-जोखा रखने वाला एकमात्र महाकाल ही हो सकता है।जो इस काल के बंधन से परे है और अनंत भूत,वर्तमान और भविष्य के कालों की धुरी जिसकी आज्ञा के बिना असमर्थ है एक पल चलने को भी।शिव महाकाल है जो पुरुष तत्व का नेतृत्व करते है।देवों में श्रेष्ठ है,इसलिए महादेव है।
शिव विष से नहीं डरते पर भक्तों की अमृतमय स्नेहमाधुरी का रसपान कर मतवाले हो जाते है।विकराल अघोरी शिव के भयंकर स्वरुप के समक्ष भय भी भयभीत हो जाता है और प्रचण्डता भी काँपने लगती है।जगत का अहंकार चकनाचूर होने लगता है और अपने अस्तित्व के आधार शिव के समक्ष वह नतमस्तक हो जाता है।कठोरता के आवरण में जो वात्सल्य की छाया है वह बस शिव रुपी कल्पतरु ही प्रदान कर सकती है।महाकाल में ही महाकाली का भी स्वरुप निहीत है और महाकाली के स्नेह से ही महाकाल का प्रस्फुटन।शिव और शक्ति कभी भी एक दूसरे से पृथ्थक नहीं है।शिव है तो शक्ति है,पराक्रम है,साहस है और ओज है।वैसे ही शक्ति है तो जीव भी शिव के समान है।अर्थात दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना अधूरा लगता है।
जगत की सृष्टि हेतु काल का वह क्षण जब निराधार अनंत ब्रह्मांड की केंद्र पटल पर दो दिव्य शक्तियाँ एकाकार होती है,काल का प्रारम्भ कहलाता है।जब महाकाल,महाकाली के समक्ष होते है और आकर्षण बिन्दू चरम पर होता है।तब जगत में इंसानियत की नींव पड़ती है।जब दोनों के साँस टकराते है,तब संसार में प्राणश्वासों का प्रवाह होता है और जब महाकाली के अधरों पर महाकाल का प्रेमपूर्ण चुम्बन होता है,तो सृष्टि में प्रेम का स्फुटन प्रारम्भ होता है।जैसे-जैसे यह मिलन की आद्वितीय वेला अपने चरमोत्कर्ष पर होती है,वैसे-वैसे सृष्टि का सर्जन होता रहता है।
ठीक इसके विपरीत काल का वह क्षण जब महाकाल रुठ जाते है महाकाली से सृष्टि के प्रलय का प्रारम्भ होता है।प्राणवायु रुक जाती है,सब कुछ स्थिर हो जाता है और मोह का व्याप्क आवरण भंग होने लगता है।प्रेम अब घृणा का स्वरुप धर कर महाविनाश की ओर उद्धत होता है।और सृष्टि के प्रलय के साथ ही महाकाल और महाकाली का यह मिथ्या विरह दम्भ खत्म हो जाता है और फिर दोनों जुड़ जाते है सर्जन में।ना जाने यह कितनी बार होता है और कितनी बार आता है सृष्टि और प्रलय?महाकाल की प्रेम क्रीड़ा के बस दो आयाम होते है "सृष्टि और प्रलय" जो मनुष्य के अस्तित्व की कहानी रचते है।
शिव का स्वरुप निराला है और शिव का चिंतन ही ज्ञान।शिव के गले में लिपटा भुजंग और इनकी सवारी वृषभ दोनों एक दूसरे के शत्रु प्रजाति है,पर शिव के समक्ष प्रेमरत है सब।शिव का स्वरुप सामंजस्य और नेतृत्व की अनूठी मिशाल है।जटे में समाहित गंगा सबको पावन करने वाली है और प्यास बुझाने वाली है।मस्तक पर आद्य चंद्र शीतलता,कोमलता और स्नेह का परिचायक है।व्याघ्र चर्म का आसन यह संदेश प्रेषित करता है कि अपनी ताकत पे स्वयं का वश हो और उस पर स्वामी विराजमान हो सके।हाथ में विद्यमान त्रिशुल की तीन शंकुएँ सुख,दुख और संतुष्टि है।जो बताती है कि दुख पीड़ा का क्षण है पर सुख,दुख का ही एक स्वरुप।बस समझने की आवश्यक्ता है फिर तो सुख के मूल में भी छिपा दुख का आवरण निर्वस्त्र हो जायेगा और नंगी आँखों से भी दिखने लगेगा।सांसारिक प्राणी बस सुख को ही देख पाता है परन्तु वैरागी और संन्यासी वही है,जो सुख के मूल में छुपे दुख को देख सतर्क हो जाता है।त्रिशुल का तिसरा शंकु संतुष्टि है।यह वह स्थिती है जब मनुष्य को ज्ञात हो जाये कि सुख,दुख क्या है?अर्थात दोनों बस माया है।सुख भी सीमीत है और दुख उसकी परछायी।परन्तु अपने सामर्थय में ही आनंद की प्राप्ति संतुष्टि है।यही अंतःकरण की तृप्ति है।शिव के हाथों में डमरु और शिव का नटराज स्वरुप नृत्य और संगीत का उद्भव है।संगीत के सुरों का आरम्भ यही से है और शिव का तांडव ही ह्रदय तारों का कम्पण है।जिससे हर क्षण हमारी ध्मनियों में रक्त का प्रवाह होता रहता है।
शिव का रहन-सहन,वेश-भूषा बिल्कुल वैरागी है।पर दाता का सामर्थय रुप में नहीं है,वो तो कार्य में दृष्टिगोचर होता है।खुद भांग,धतूरा और गंगाजल से तृप्त होने वाले शिव स्वयं पर राख लपेटे हमारी किस्मत का लेखा-जोखा करते है।शिव "भोले-भाले" है।अर्थात प्रेम के समक्ष शिव का भोलापन मनोहारी है और घृणा के सामने भाले के जैसे विध्वंसकारी।हर समय ध्यान में मग्न शिव का स्वरुप जगत की सृष्टि हेतु हितकारी है।ध्यान वही है जहाँ ज्ञान है और जब ज्ञान है तो दान है।ये सब शिव के अनंत स्वरुप में दृष्टिगोचर है।वे आदिदेव है।अर्थात ना उनका कोई आरम्भ है और ना ही अंत।वो कब से है?शायद तब से जब काल का लेखा-जोखा भी ना हो।वही जगत का सार है।जिसके स्वरुप का मंथन ही सच्चा ज्ञान है और सत्य की पहचान है।
जीव की सार्थकता इसी में है,कि शिव रुपी अमृतवर्षा में वह पूर्णरुपेण भींग जाये।तन और मन को इस तरह भींगो ले कि हर अवसाद और क्लेश मिट जाये हर जन्म का।आध्यात्मिक एकाग्रता और व्याप्कता की नींव है शिव।शिव तथ्य है जिसका मूल है ज्ञान।तीव्र पवन के झोंको में समाहीत आवेग का हर एक प्रवाह बस शिव से सम्बंधित है।सृष्टि के हर पहलु का तार बस शिव रुपी युग्म से जुड़ा है।जहाँ शिव की अनंत सिंधु में ज्ञान और प्रेम का जल ही जल भरा हुआ है।शिव को समझना ही शिव को पूजने जैसा है।पुरुष रुपी शिव मातृत्व के अद्भूत वात्सल्य को समेटे है खुद में।जिसकी गोद में जीव को वह सुख प्राप्त होता है।जहाँ वह काल के हर एक बंधन से मुक्त होकर बस शिव में एकाकार होना चाहता है।जीव से शिव का वह मिलन कल्याणकारी है,जहाँ पशुपति शिव के समक्ष सम्पूर्ण जीवधारी नतमस्तक है और शिव ब्रह्मांड की तत्क्षण सर्जना को धारण किये हुये है। 

Wednesday, July 13, 2011

समर्पण और आस्था की शक्ति से मुक्कदर को पाओ

कुछ तो है ऐसा जो शाश्वत है।वही चिर काल से चिर काल तक है।वह सर्वशक्तिमान ईश्वर है।परन्तु उस आध्यात्मिक ईमारत की नींव भी बस आस्था की अमिट भावनाओं पे पड़ी है।आस्था के बिना ना तो सृष्टि के सृजनात्मक कार्यो की कल्पना की जा सकती है और ना ही सृष्टिकर्ता की।जिसकी आस्था की शक्ति जितनी ज्यादा है,ईश्वर उसके उतने ही करीब है।आस्था ही वह बीज है,जो समर्पण की भावना को अंकुरित करता है मानव ह्रदय के भीतर।कीचड़ में जैसे कमल खिलता है और अपनी सुंदरता से वह सबको मोहीत कर लेता है।वैसे ही ह्रदय में आया समर्पण का भाव हमें अपने मुक्कदर की उँचाईयों तक पहुँचाता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का मार्ग बताया है।कर्म ही श्रेष्ठ है यह अतिशयोक्ति नहीं है।पर यदि कर्म के साथ ही आस्था की शक्ति भी हो और परमसता के प्रति समर्पण का भाव भी हो तो मुक्कदर बनते देर नहीं लगती।समर्पण की उद्धात भावना के समक्ष कर्मयोग का पक्ष भी हल्का पड़ने लगता है।पर वह समर्पण ऐसा होना चाहिए जिसमें स्वयं का कोई वश ना हो।पूर्णतया खुद को सौंप दिया गया हो ईश्वर को।तब ऐसी परिस्थिती में आस्था की शक्ति और उद्धात समर्पण भाव के समक्ष भगवान अपने भक्त के लिए हर पल उपस्थित होता है।बस समर्पण का भाव पूर्णरुपेण समर्पित होना चाहिए।वहाँ किसी भी तर्क या शंका की आवश्यक्ता नहीं होनी चाहिए।
तर्क वहाँ होता है,जहाँ शंका होती है।और शंका वहाँ घर बनाता है,जहाँ आस्था की शक्ति कमजोर होती है।उद्धात समर्पण भाव के समक्ष तर्क खुद ब खुद नतमस्तक हो जाता है और जीव को शिव में एकाकार होते देर नहीं लगती।आस्था के पिछे लोभ का कोई साया नहीं होना चाहिए।किसी अमुक विषयवस्तु की प्राप्ति के लिए क्षणिक दिखाया गया समर्पण भाव कभी भी प्रगति के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक है।जरुरत है स्वयं के अस्तित्व के बारे में सोचने की और अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक अंतःजागृति लाने की।क्या हमारा जन्म बस इन क्षणभंगूर भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए हुआ है या भौतिकता से ऊपर की भी कोई आकांक्षा है हमारे अंतःकरण में।
टेक्नोलाजी और आधुनिकता के इस युग में लोग समझते है कि बस कुछ वेदमंत्रों को पढ़ कर और भगवान की स्तुति भर कर हम सफलता की हर एक ऊँचाईयों को पा लेंगे।पर यह सर्वथा गलत है।भगवान मंत्रों का या अपनी प्रशंसा का भूखा नहीं है।वो तो बस भावना का भूखा है,जो समर्पण भाव ही दिला सकते है।स्वयं के लिये और अपनों के सुख दुख में तो सभी रोते है,पर वह जो भगवान से मिलन की उत्कंठता में रोता है और विरह में नैनों को अश्रु से भिगोता है।वही अंत अंत तक अपनी मँजिल को पाता है।ह्रदय के भाव उमर कर जब आँखों से दो बूँद बन कर बहते है।तभी भगवान के समक्ष अपनी पूजा पूरी होती है।आस्था की शक्ति इतनी मजबूत होनी चाहिए कि प्रलय के क्षणों में भी मन में यह अडिग समर्पण हो कि अपना रखवाला तो अपने साथ है।फिर देखिये वो बस पल भर में आपके जिन्दगी के सारे तूफानों को समेट देगा और मँजिल तक जाने का मार्ग बड़ी सुगमता से दृष्टिगोचर होने लगेगा।
हमारे ईतिहास में कई ऐसे संत,महात्मा हुये है जिनके पास अक्षरों की थोड़ी सी भी समझ ना थी पर उनके पास समर्पण और आस्था की शक्ति का वो अद्भूत ज्ञान था,जो उन्हें हर पल ईश्वर का सान्निध्य देता रहा।हमारा शरीर हमारी पहचान नहीं है और ना ही हमारा वजूद आज जो है वही कल है।पर अतिसूक्ष्म आत्मा का वास ही हमारे अस्तित्व की सम्पूर्णता है।आत्मा ही सार्वभौमिक है,जो ईश्वर के द्वारा हमें दिया गया तेज है।और तन के अवसान के बाद पुनः ईश्वर को समर्पित होकर विलिन हो जाता है।मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह भविष्य के बारे में उतना ज्यादा गम्भीरता से नहीं सोचता।पर स्वयं के आध्यात्मिक परिचय के लिये उसे अपने अंतिम लक्ष्य को जानने की जरुरत है।जहाँ सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है और आत्मा भी निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है।यह वही समर्पण की शक्ति से सम्भव होता है,जो जीवन मृत्यु के बंधनों को काटकर जीव को शिव बना देता है।
कभी भी कोई कष्ट हो एक बार अपने अराध्य देव को पुकारो।बस पुकारने में भी उद्धात समर्पण की भावना नीहित होनी चाहिये।फिर देखिये समर्पण और आस्था की शक्ति से कैसे हम एक पल में मुक्कदर की ऊँचाईयों को पा लेते है।जीवन के हर रंग में रंग जाओ पर यह रंग बस तन तक ही सीमित होना चाहिए।अपने संस्कारों को कभी भी भूलना नहीं चाहिए और निरंतर भावनाओं को सम्प्रेषित करते रहना चाहिए।यही वह समर्पण है,जो कभी द्रौपदी की रक्षा करता है कान्हा बन कर तो कभी मीरा को कृष्ण प्रेम में बेसुध कर देता है।आज बस आस्था की थोड़ी बची हुई कुछ शक्ति ही है,जो घोर कलियुग में भी ईश्वर की कृपा मिल जाती है हमें।वरना आस्था के बिना पत्थर के मूर्ती का भी कोई अस्तित्व नहीं है और साक्षात ईश्वर भी पत्थर के मूर्ती सा ही है।

Wednesday, July 6, 2011

आज स्त्री बस वासना की पूर्ति भर है क्या?

अपनी अश्लील भावनाओं को प्रेम की पवित्रता का नाम देकर कोई अपनी अतृप्त वासना को छुपा नहीं सकता।वासना के गंदे कीड़े जब पुरुष मन की धरातल पर रेंगने लगते है तब वह बहसी,दरिंदा हो जाता है।अपनी सारी संवेदनाओं को दावँ पर रख बस जिस्म की प्यासी भूख को पूरा करने के लिए किसी हद तक गुजर जाता है।जब तक अपनी इच्छानुसार सब कुछ ठीक होता है तब तक वह प्रेम का पुजारी बना होता है।पर जैसे ही उसे विरोध का साया मिलता है वह दरिंदगी पर उतर जाता है।वासना के कुकृत्यों में लिप्त होकर जिस्मानी भूखों के लिए किसी नरभक्षी की तरह स्त्री के मान,मर्यादा और इज्जत को रौंदता रौंदता वह समाज,परिवार और संस्कारों को ताक पर रख बस वही करता है,जो करवाती है उसकी वासना।
हमारी संस्कृति में और हमारे धर्मग्रंथों में स्त्री को जो सम्मान मिला है।वो आज बस इतिहास के पन्नों में ही सीमट कर रह गया है।क्या स्त्री की संरचना बस पुरुष की काम और वासना पूर्ति के लिए हुई है।वो जननि है,वही हर संरचना की मूलभूत और आधारभूत सता है।पर क्या अब वही ममतामयी पवित्र स्त्री का आँचल बस वासनामय क्रीड़ा का काम स्थल बन गया है।आज समाज में स्त्री को बस वस्तु मात्र समझ कर निर्जीव वस्तुओं की तरह उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।क्या यही है वजूद आज के समाज में स्त्री का।स्त्री पुरुषों को जन्म देकर उनका पालन पोषण कर के उन्हें इसलिए इस लायक बना रही है कि कल किसी परायी स्त्री के अस्मत को लूटों।इन घिनौने कार्यों की पूर्ति के लिए स्त्री का ऊपयोग क्या उसे वासना का परिचायक भर नहीं बना दिया है आज के समाज में।
हद की सीमा तब पार हो जाती है जब बाप के उम्र का कोई पुरुष अपनी बेटी की उम्र की नवयौवना के साथ अपने हवस की पूर्ति करता है और अपनी मूँछों को तावँ देते हुये अपनी मर्दांगनी पर इठलाता है।लानत है ऐसी मर्दांगनी पर जो अपनी नपुंसकता को अपनी वासनामयी हवस से दूर करने की कोशिश करता है।क्यों आज भी आजादी के कई वर्षो बाद भी जब पूरा देश स्वतंत्र है।हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना जीवन यापन करने के लिए तत्पर है।पर जहाँ बात आती है स्त्री के सुरक्षा की सभी आँखे मूँद लेते है।क्या आज शक्ति रुपा स्त्री इतनी कमजोर हो गयी है जिसे सुरक्षा की जरुरत है।क्या उसका वजूद जंगल में रह रहे किसी कमजोर पशु सा हो गया है,जिसे हर पल यह डर बना रहता है कि कही उसका शिकार ना हो जाये।पर आज इस जंगलराज में शिकारी कौन है?वही पुरुष जिसको नियंत्रण नहीं है अपनी कामुक भावनाओं पर और यह भी पता नहीं है कि कब वो इंसान से हैवान बन जायेगा।
स्त्री की कुछ मजबूरियाँ है जिसने उसे बस वासना कि पूर्ति के लिए एक वस्तुमात्र बना दिया है।मजबूरीवश अपने ह्रदय पर पत्थर रख बेचती है अपने जिस्म को और निलाम करती है अपनी अस्मत को।पर वो पहलू अंधकारमय है।वह वासना का निमंत्रण नहीं है अवसान है।वह वासनामयी अग्न की वो लग्न है,जो बस वजूद तलाशती है अपनी पर वजूद पाकर भी खुद की नजरों में बहुत निचे तक गिर जाती है।स्त्री बस वासना नहीं है,वह तो सृष्टि है।सृष्टि के मूल कारण प्रेम की जन्मदात्री है।स्त्री से पुरुष का मिलन बस इक संयोग है,जो सृष्टि की संरचना हेतु आवश्यक है।पर वह वासनामयी सम्भोग नहीं है।
हवस के सातवें आसमां पर पुरुष खुद को सर्वशक्तिमान समझ लेता है पर अगले ही क्षण पिघल जाता है अहंकार उसका और फिर धूल में ही आ मिलता है उसका वजूद।वासना से सर्वकल्याण सम्भव नहीं है पर हाँ स्वयं का सर्वनाश निश्चित है।वासना की आग में जलता पुरुष ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे लौ पर मँडराता पतंगा लाख मना करने पर भी खुद की आहुति दे देता है।बस यहाँ भावना विपरीत होती है।वहाँ प्रेममयी आकर्षण अंत का कारक होता है और यहाँ वासनामयी हवस सर्वनाश निश्चित करता है।स्त्री को बस वासना की पूर्ति हेतु वस्तुमात्र समझना पुरुष की सबसे बड़ी पराजय है।क्योंकि ऐसा कर वो खुद के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा बैठता है अनजाने में।अपनी हवस की पूर्ति करते करते इक रोज खुद मौत के आगोश में समा जाता है।
जरुरी है नजरिया बदलने की।क्योंकि सारा फर्क बस सोच का है।समाज भी वही है,लोग भी वही है और हम भी वही है।पर यह जो वासना की दरिंदगी हममें समा गयी है वो हमारी ही अभद्र मानसिकता का परिचायक है।स्त्री सुख शैय्या है,आनंद का सागर है।बस पवित्र गंगा समझ कर गोते लगाने की जरुरत है ना कि उसकी पवित्रता को धूमिल करने की।जिस दिन स्त्री का सम्मान वापस मिल जायेगा उसे।उसी दिन जग के कल्याण का मार्ग भी ढ़ूँढ़ लेगा आज का पुरुष जो 21वीं सदी में पहुँच तो गया है पर आज भी कौरवों के दुशासन की तरह स्त्री के चिरहरण का कारक है। 

Saturday, June 25, 2011

कल रात तुमको सुना मैने

चाहता है ह्रदय फिर से तुम्हें पाने को और इस बार पाकर कभी ना खोने को।सुनना चाहता है तुम्हारी हर एक वो शिकायत जो तुम इक अनूठे अधिकार के साथ करती थी मुझसे।और मै तुम्हारी डाँट सुन कर भी हँस पड़ता था उस भोलेपन पर जो छलकता था तुम्हारी हर एक शब्द से।बड़े दिन हो गये,गये हुए तुमको पर अब तो दुनियादारी की बातें सुन-सुन कर थक से गये है मेरे कान।वो तो अब भी तुम्हारी अल्हड़पन वाली कोमल भावनाओं में भिंगोयी बातें सुनने को व्याकुल है।जिन बातों में बस अपनत्व और स्नेह की मिठास घुली होती थी।
शायद ये नहीं पता तुमको पर अब भी सुनता हूँ मै तुमको।जब-जब धड़कने धड़कती है तब-तब और जब जब साँसे चलती है तब-तब।हर उस लम्हें में तुम्हारी हँसी की खनखनाहट समा जाती है मेरे कानों में।तुमसे की गयी कुछ बातें जिनको मैने अपने मोबाईल में रिकार्ड कर लिया था आज भी आधी रात में एकाकी मन को तुम्हारे संग का एहसास दे जाते है।लगता है ऐसा कि तुमसे बात हो रही है,पर विचित्र स्थिती होती है मेरी उस समय तुम्हारे किसी बात का जवाब नहीं दे पाता मै बस मौन होकर सुनता रहता हूँ तुम्हें।जाना चाहता हूँ उस बीतें पल में और फिर पूछना चाहता हूँ तुमसे कुछ पर क्या करुँ खुद को हर बार अब अनुपस्थित पाता हूँ उस क्षण में जो बीत गया है।ना रहा वो प्यार अब और ना रहे वो प्यार करने वाले पर यादों में कैद तुम्हारी आवाज आज भी याद दिलाते है अपने प्यार के वादों और कसमों को।
आज रात की आधी पहर में जब सांसारिकता की सारी उलझनें भूल कर चैन से सोने गया बिस्तर पर तभी सहसा तुम्हारी यादों की हवायें आने लगी मेरी खिड़की से और शायद साथ में लाये कुछ बोल तुम्हारे टकराने लगे मेरी कानों से।मन में जगी इक ईच्छा ने आज सुनना चाहा तुमको और मै हेडफोन को अपने कानों में लगा सुनने लगा तुम्हारी बातों की रिकार्डींग।पता नहीं कितना पुराना था वो पर आज भी सुन कर लगता जैसे हो रही हो अब भी बात अपनी।हर बार की तरह मानों अपने प्रेम की शंका से उपजा मेरा प्रश्न पूछ बैठता तुमसे "कितना प्यार करती हो मुझसे?" और तुम बस इतना कहती "बहुत,बहुत बता नहीं सकती।"सुन कर आज बातें तुम्हारी एहसास हुआ कितने ख्वाब और भविष्य की कल्पनायें जो देखे थे हमने कल अब भी तो उतने ही अधूरे है जितने थे कल तक और अब तो शायद उन ख्वाबों के पूरे होने का ख्वाब भी नहीं आता मुझको।
हाँ तुम्हारी बातों ने तुम्हारे संग का एहसास दिया था मुझे पर इस एहसास में ना तो स्पर्श की कोई संवेदना थी और ना ही मेरे स्वयं का कोई सहयोग।बस इक मिथ्यास्पद गुजरे कल के कुछ बिखरे मोतियों को सहेज कर अपने प्रेम की माला बनाने की कोशिश कर रहा था मै और सहेज रहा था अपने आशिया के बिखरे तिनकों को जो मेरे दिल के घर को भी आज सूना सूना सा कर गये थे तुम्हारे जाने के बाद।सुनकर इक दिलासा जगा था दिल में कि चलो आज ना सही पर कभी तो हुआ था वो मेरा जिसकी चाहत ने न जाने कितनी तमन्नाएँ सौंपी थी मुझको और खुशनुमा,खुशहाल जिंदगी के कई ख्वाब दिखाये थे मुझे।जिसके साथ ने थामा था हाथ मेरा और मुझे भी सीखाया था प्यार करना पहली पहली बार मुझे।वो ही तो था पहला प्यार मेरा।
तुमको सुनते-सुनते न जाने कब नींद ने भर लिया अपने आगोश में मुझको और एकाएक इक झटके में जाग गया मै लगा कि मानों तुमने कहा हो "इतनी जल्दी क्यों सो गये तुम,देखो ना मै तो आज भी जागी हूँ रात-रात भर।"और मेरी आँखों से फिर दूर चला जाता वो रात जिनमें नींद ना था मेरी आँखों में बस रात थी और तुम्हारी बात।जी करता सुनता रहूँ हर रोज यूँही तुमको और इस झुठे दिलासे के संग देता रहूँ इक उम्मीद अपने कानों को भी कि हो ना हो इक रोज जरुर गूँजेंगे तुम्हारे कुछ शब्द इनमें जो अपनी प्यार की अधूरी कहानी को पूरा करेंगे और तुमको सुन लूँगा फिर आँखों को मूँद कर के शायद आखिरी बार।