Saturday, September 10, 2011

तर्क,विश्वास के धरातल पर शंका की लकीरें है

कौन हो तुम?मै नहीं जानता तुम्हें या शायद जानना ही नहीं चाहता।मुझे तो बस "मै" बन कर रहना है,"तुम" नहीं बनना।ऐसी भावनाओं में घिरा आज का मनुष्य स्वयं पोषित करता है स्वयं के अभिमान को।वह नहीं चाहता शाश्वत को जानना,वह तो बस अपने द्वारा बनाये गये स्वयं की कृत्रिम नगरी में आजीवन रहना चाहता है।सांसारिक ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर स्वयं को सर्वस्व मान लेना ही हमारा पतन के द्वार में प्रथम प्रवेश है।हर चीज को तर्क की कसौटी पर परखता है और स्वयं के गुरुर में मदमस्त मानव सर्वशक्तिमान परमात्मा की अद्भूत सता को भी नकार बैठता है।उसका "मै" ईश्वरीय सता के समक्ष भी नतमस्तक नहीं हो पाता और तर्क की धुरी पर जीवनयापन करता एक दिन स्वयं का अस्तित्व भी खो बैठता है।
जहाँ सम्पूर्ण विश्वास है और आत्मिक समर्पण है,वहाँ किसी भी प्रकार के किसी तर्क की कोई जगह ही नहीं।क्योंकि वहाँ मै स्वयं को परमात्मा के प्रकाश में लोपित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।वहाँ ना ही कोई शंका भाव होती है और ना ही कोई भय।निर्भिक होकर स्वयं आत्मा,परमात्मा की आधारभूत सता में लीन हो जाती है।वही अवस्था जीवन का अंतिम पड़ाव होता है।वहाँ सारी सांसारिक ईच्छायें और आकांक्षायें नष्ट हो जाती है।बस एक प्रकाशपुन्ज ही दृष्टिगोचर होता है,जो हर भाव से परे और शाश्वत होता है।विश्वास तभी जगता है,जब संतुष्टि मिलती है।जब यह लगने लगता है कि यह कार्य मुझे संतुष्टि प्रदान कर रही है।तब वहाँ विश्वास के धरातल का निर्माण होता है।विश्वास के धरातल पर ही सृष्टि की कल्पना संभव है।जहाँ संदेह है अगर थोड़ा सा भी तो आत्मिक संतुष्टि नहीं है।एक भय का आवरण है जो हर पल प्रेषित करता रहता है तर्क की इच्छा।
तर्क मनुष्य स्वयं के अभिमान को पोषित करने हेतु करता है या उस सर्वशक्तिमान को नकारने के लिए।क्योंकि तर्क और समर्पण के भाव बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत है।जहाँ समर्पण में स्वयं का सर्वस्व पूर्णरुपेण इश्वर को समर्पित होता है और खुद की बागडोर परमात्मा के हाथों में।वही तर्क के भाव में बस दूरी का एहसास होता है,स्वयं का उस ईश्वर से।कहते है कि "जब तक आंतरिक मन पूरी तरह रम नहीं जाता परमात्मा के नशे में तब तक ईश्वर रुपी राम का सान्निध्य संभव नहीं।"मीरा की तरह बेसुध होना होगा,तब तो कान्हा हर पल साथ होंगे।साथ ही स्वयं को भूल कर बस अपने आधार के अस्तित्व में स्वयं का अस्तित्व देखना होगा।तब ही इस सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिल सकती है।वरना अपने अभिमान को पोषित करते रहो और बार बार जन्म,मरण के बंधनों में फँसे हुये हर बार आकर इस संसार में अपने कुकर्मों के लेखा जोखा का विस्तार करते रहो।यह जीवन का सार नहीं है।यह तो मायाजाल का वह भँवर है,जो कभी भी नहीं चाहता कि तुम इससे बाहर हो जाओ।
कलियुग में आज कई ऐसी मानसिकताओं ने धर कर लिया है,जो हर पल मानव की क्रूरता और पाश्विकता को चिन्हित करती है।व्यक्ति तर्क कब करता है जब वह कमजोर होता है।जब उसे ये एहसास होता है कि मेरे अहंकार की अब पराजय हो सकती है,वह तर्क का सहारा लेता है।और अपने सांसारिक धागों में पिरोये कृत्रिम बातों का हार पहनाकर स्वयं को विजयी घोषित करता है।कहते है "मौन अनंत की भाषा है।"ज्ञानी पुरुष ज्यादा नहीं बोलते ना ही वो कोई तर्क करते है।क्योंकि उन्हें यह ज्ञात होता है कि सच क्या है और मिथ्या क्या।वे शंका या संदेह के किसी दोराहे पे खड़े नहीं होते है।उन्हें तो शाश्वत सत्य का पता होता है।वो तो बस सामने वाले के तर्क को चुपचाप सुनते रहते है और उसकी दैनिय दशा पर तरस खाते है।वो जानते है कि बेचारा उलझा हुआ है स्वयं में।वह जिस सांसारिकता को सत्य मान कर उसका पक्ष ले रहा है।वही सांसारिकता एक दिन उसके अंत के समय मृत्यु शैय्या का कार्य करेगी।
तार्किक व्यक्ति कहता है "मन चंगा तो कठौती में गंगा।"पर मेरा कहना है इन पंक्तियों की सार्थकता तभी है जब आप रैदास है।और आपका मन वैसा ही निर्मल और स्वच्छ है।वरना यह तर्क निराधार है,जिसकी कोई भी धारणा नहीं।हाँ अगर तुम तर्क से विवेकानन्द बन जाओ तो तर्क करो।पर उस तर्क में भी विवेकानन्द की तरह सत्य के खोज की प्रबल इच्छाशक्ति होनी चाहिये।वह तर्क ऐसा हो जो तुम्हारे हर शंकाओं का समाधान कर सके ना कि स्वयं के अभिमान को पोषित करता रहे।"तर्क विश्वास के धरातल पर शंका की लकीरें है।"जब तक तर्क है तब तक हमारा परमात्मा से कोई समपर्क नहीं।क्योंकि ईश्वर उसे बस एक पल में "आई गो" कह देता है जिसमें उसका अभिमान "इगो" भरा होता है।तब तक विश्वास के धरातल पर समर्पण के बीज अंकुरित नहीं हो सकते जब तक कि तर्क द्वारा शंका की लकीरें धरातल को कमजोर करती रहे।स्वयं को भूल उसका हो जाना ही समर्पण है।और उसको भूल स्वयं के अभिमान को पोषित करने का एक जरिया है तर्क।जबकि हास्यास्पद बात यह है,कि जिस स्वयं को जीवित रखने हेतु तर्क की मानसिकता का जन्म होता है।उस "स्वयं" का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं।