Wednesday, October 11, 2023

"तुम बस सर्वनाम नहीं हो"- गद्यात्मक काव्य


लिखता रहूँ, बेपरवाह सा यूँहीं रात भर तुम पर,
मेरी आँखों से शायद नींद कुछ पल रूठ बैठी है....

उसके नाजुक, कोमल मखमली पांव में बड़ी ही मासूमियत से बंधे पायल की छम-छम, घुंघरू की रुनझुन और शांत, घुप्प उदासी में सराबोर किसी वीरान जंगल में बहते झील के पानी की कल-कल की सुरीली धुन मानो सुरों की कोई अंतहीन प्रतिस्पर्धा छेड़ बैठे थे। वह खो गया था किसी अलौलिक तिलिस्म में उसकी आँखों की गहराइयों से होकर गुजरी थी उसकी अनकही मोहब्बत। उसके समक्ष शायद स्वर्ग की कोई रूपवती, कौमार्यता के सदृश, जीवंत यौवन का पर्याय अप्सरा ही उतर आई थी। उसने कहा खुद से, कोई जवाब नहीं मिला। उसने पूछा पूरी कायनात से उसकी जादुई सुंदरता का रहस्य। चांद भी शरमा कर कही बादलों की ओट में छुप गया।

वह रात भर जाग कर तारे गिनता रहा। उसने पूरे आसमान में हर तारे में उसे देखा, बादलों की बनी हर टूटी, फूटी, अधूरी रेखा चित्रों में भी उसे बस उसी का चेहरा दिखता रहा। उस रात उसने खुद को घोषित कर दिया पागल। हाँ वो पागल ही तो हो गया था उसकी एक झलक पाकर। बेपरवाह रात की घनघोर खामोशी को चीरता उसके प्रेम गीत का सुरीला राग अब मानों अपने अल्हड़पन का काल्पनिक किस्सा हर किसी को सुनाना चाहते थे।

चांद की चटकीली चांदनी उसके चेहरे को ऐसे प्रकाशित कर रही थी मानो वह पूरे ब्रह्मांड में सबसे विशिष्ट हो गया था। उसने प्रेम के संसार में खुद के प्रवेश को अभूतपूर्व विशेषणों से अलंकृत कर खुद को प्रेमी कहता हर गली,मोहल्लों में शोर करने को उतावला हो गया था। उसे बदनामी का डर नहीं था, ना ही अपने प्रेम पर किसी के नजर लग जाने का आंतरिक भय। शायद उसने लगा दिया था काला टिका अपने प्रेम के माथे की दाहिनी ओर  कपाल पर कही।

उसके अंतर का संगीत गूंजने लगा उसके भीतर से निकल कर ब्रह्मांड के कोने-कोने में। उसके अल्फाज भी स्वछंद होकर पड़ लगाकर उड़ने लगे थे। वह कहने की कोशिश करने लगा। अपने दिल में महफूज दबी हुई दिल्लगी की बात सब से। सभी जड़, चेतन, जीवित , मृत, शशरीर, आत्मा सब ने सुना उसके सुरीले प्रणय निमंत्रण को। वह मस्तिष्क के हर द्वार पे कुंडी लगाकर हृदय मार्ग से ही गुजरता बेधड़क, बेपरवाह सा कहने लगा।

"तुम बस सर्वनाम नहीं हो, तुम मेरी जिंदगी की वह विशेषण हो, जिसको पाकर मेरा नाम अपनी संज्ञा पाता है। तुम्हारा होना ही मेरी पहचान है, तुम्हारे बिना तो सब बेजान है। तुम बस कोई जादुई कविता नहीं हो, तिलिस्मी गीत नहीं हो। तुम शब्दों की झील में थोड़ी रंगहीन,कुछ उजली सी, साफ-साफ दिखती मेरी ही परछाई हो। तुम्हारे ही होने से अक्षरों में जान है, शब्दों में अर्थ है और मुझ निरक्षर के पास भी स्वचिन्तन और अंतर्दर्शन की अपार ताकत है।"

उसने शायद नहीं सुना उसके प्रेममयी मनुहार को। वह फिर न दिखी दुबारा। उसने एकाएक छलांग लगा दिया त्रेता युग में। वह राम की व्याकुलता लिए जंगल-जंगल भटकता फिरने लगा अपनी खोई हुई सीता की खोज में। वह दौड़ने लगा बाणों के संग, हवा से भी तीव्र गति से। उसने पीछे छोड़ दिया कई युगों को। वक्त की दहलीज पर रेंगते रहे हमेशा की तरह दिन,महीने और साल। उसने फिर इंतजार किया रात के आने का, अनंत आकाश के असंख्य तारों से भर जाने का। चांद से फिर उसकी सुंदरता और दिव्यता का रहस्य पूछे जाने पर बादलों की ओट में शरमा कर छिप जाने का। वह रात भर फिर करता रहा बात आसमान के अनगिनत तारों से। सभी मायूस थे, किसी को नहीं थी खबर उसकी वो जो कुछ दिन पहले हर तारे में उसे दिखने लगी थी।

उसने आंखों को बंद कर लिया। वह आज मृत्यु का अभ्यास करना चाहता था। उसने अपनी सांसे रोक ली।चुपचाप धड़कनों को सुनने की कोशिश करता रहा। हल्के नशीले, सुरीले वाद्य यंत्रों की संगीतनुमा लहर सी उसकी पायलों की छम-छम को उसने सुना अपनी धड़कनों में एक बार फिर। जिसे उसने अपनी आत्मा में कैद किया था शायद पिछले किसी जन्म में या जन्म जन्मांतर का प्रेम था उनका अलौकिक, अद्वितीय। शायद वही द्वापर में अवतरित प्रेम का स्वरूप कृष्ण था यमुना के किनारे अपनी सुमधुर बांसुरी की तान से  सबको मंत्रमुग्ध कर देने वाला और वो थी उसकी प्रेयसी राधा। खुद में खोई सी, समुद्र के बीचोबीच एकांत टापू पर झिलमिलाती रौशनी सी, सुरीले वाद्य यंत्र के अप्रतिम धुन सी, कभी कही किसी के व्याकुल अंतर से निकले प्रार्थना के गीत में समाहीत होकर आसमान की अनन्त गहराइयों में न जाने कब से एकाकी जीवन जीने को विवश ।

-----सत्यम शिवम।