Monday, March 21, 2011

आज फिर उदासी है तुम बिन

सब तो है आज मेरे साथ,सारी खुशी है मेरे पास,फिर क्यों है इतनी उदासी?बिल्कुल उदास जीवन निरसता का मानों पर्याय बना गया हो।तुम बिन वो चीज जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी,अब नहीं अच्छी लगती।कुछ भी तो नहीं भाता तुम बिन।बस एक तन्हाई ही साथी सा है मेरा अब,जो अपनी झोली में मेरी खातिर उदासीयाँ भर लाता है।अकेला मै और न जाने कहाँ अकेली तुम।अब तो कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हें मेरी उदासी या खुशी से।अब तो भूल गई हो तुम सब कुछ।
हर शाम यादों को लाती और न चाहते हुये भी उदासी मुझे घेर लेती।बिल्कुल अकेला खड़ा मै अपने जीवन के वीरान राहों पे बड़ा उदास हो जाता।आँखे कभी कभी ढ़ुँढ़ती तुम्हें यहाँ वहाँ पर फिर बेचारी थक कर सो जाती।सुबह से रात तक कितने ख्वाब संजोता मै परन्तु फिर रात का डरावना ख्वाब सब चकनाचूर कर देता।चाहता मै कुछ प्रणय गीत लिखूँ आज पर क्या करुँ उदासी भरे नगमें ही बना पाता।चाहता आज लिखूँ उस क्षण के बारे में जब तुम मिली थी मुझे पहली बार,पर हर बार वो आखिरी रात ही याद आता मुझे और उदास जिंदगी की तन्हा राहों पर फिर अकेला बेसुध सा मै चल पड़ता ढ़ुँढ़ने तुम्हें।
इक कमी जिसके पूरे होने का स्वप्न मै रोज देखता,पता है वो तुम्हारा अभाव ही है मेरे जीवन में।बहुत सी बातें कहने को जी में आता,पर कहाँ आती हो तुम अब पास उन्हें सुनने।मै अब कैसा हूँ,जानती हो,क्या कोई परवाह नहीं तुम्हें?पर कभी तो बड़ी चिंता होती थी तुम्हें मेरी खातिर।पर क्या अब जमाना बदल गया इतनी जल्दी।तुम कहती मुझसे अपने दिल की बात और मै तुम्हें ढ़ाँढ़स बँधाता।अब क्या कोई बात तुम्हारे दिल में नहीं पलते या मुझसे कहना अच्छा नहीं लगता।
कभी कभी अजनबी बनने की तुम्हारी कोशिश हर बार हमे और करीब लाती और आज क्यों इतने करीब होकर भी हम एक दूसरे को पहचान नहीं पा रहे।कुछ तो है तुम्हारे दिल में जो मुझसे कहना चाहती हो अब भी तुम।पर मेरी उदासी तो मानों मुझे बिल्कुल अकेला और एकाकी बना दिया है।अब खुद से पूछता,खुद पे हँसता और कभी कभी पागलों की तरह तुमसे बात भी कर लेता।इक झुठी तसल्ली दे देता दिल को पर फिर उदासी अपना दामन फैला कर समेट लेती मुझे खुद में।


साँसे तो चलती रहती पर ऐसा लगता अब भी धड़कन तुम्हारे दिल में ही धड़क रही हो।क्योंकि काबू नहीं रह पाता अपनी धड़कनों पर।तुम बिन कई सदियाँ यूँही उदास बीत जाती,कितने मौसम यूँही तपाते,बरसते और मुझे कई बार भींगा के चले जाते।तुम बिन बस इक तुम्हारी ही तमन्ना जीवन का लक्ष्य होती और आखिरी साँस में भी तुमसे मिलने की झुठी ख्वाहिश करती।
तुम नहीं आती,न मै ही तुमसे मिल पाता और बस इक उदास जिंदगी में तन्हाईयों से ही दोस्ती करने की कोशिश करता।तुमको उन उदास पलों में कभी छत पे अकेली खड़ी देख तुम्हारे पास जाता और फिर तुम गुम हो जाती।कभी तुम्हें उस झील के किनारे बैठा देखता और आँखों में मेरे इंतजार की बेचैनी तुम्हारे लाख छुपाने पर भी झलक जाती।कभी तुम्हें अपनी उदास जिंदगी में हर उन राहों पे खड़ी देखता जहाँ मेरा अकेलापन मुझे बिल्कुल अधीर बना देता और तुम्हारा साथ जीवन का सच्चा साथी होता।तु्म्हारे इंतजार में फिर भोर होती और फिर रात को बिस्तर पर कई घंटे बस तु्म्हारे बारे में सोचता रहता और फिर वही पुरानी उदासी घेर लेती मुझे चारों तरफ से और मै अकेला बिल्कुल अकेला हो जाता सब के बीच तुम बिन।  

Thursday, March 17, 2011

बस यूँ ही

शायद तुम्हे है पता कि मै "बस यूँ ही" नहीं लिखता।शायद तुम जान सकती हो मुझे और समझ सकती हो,कि हमारा वजूद "बस यूँ ही" नहीं है।इन आसान से लब्जों से कई बार तुमने अपने दिल में उमरते तूफान को छुपा लिया था,कई बार आँखों ही आँखों में सूख गयी थी आँसूओं की वो बरसात।और तुमने ये कह कर हर बार टाल दिया था मुझे "बस यूँ ही"।घर के कोणे वाले उस कमरे में छुप छुप कर तुम क्या करती थी?आँसूओं को यूँ ही बहाती और यादों के हर एक लम्हें को जीती रहती।
बस कुछ पल का साथ ही तुम्हारा "बस यूँ ही" सारी जिंदगी का हमसफर माँगता था मुझसे पर मेरी असमर्थता को शायद ही कोई समझे।मै चाहता कर दूँ अपनी तमाम जिंदगी बस तुम्हारे नाम।हर साँस के हर पोर में बस समा जाओ तुम और नजरों से जहाँ तक देख सकूँ मै,बस तुम्ही दिख जाओ।कितनी बातें करुँ तुमसे पर वो जो कुछ अनकही है हमारे बीच वो कैसे बयां हो पाये?कहने से भला कह सकता दिल की बात तो कब का कह दिया होता,पर उन बेजुबान लब्जों को शब्द देना मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल था।कभी ऐसा लगता मेरी ईशारों में मेरा इजहार तुम तक पहुँच गया है,पर फिर नादान दिल की बेचैनी लब्जों पे आकर ही टीक जाती और मै गुमशुम सा सोचता रहता क्या करुँ?


मजबूरियों में बँधे हम दोनों,अपनी मजबूरी की दास्ता बयां भी नहीं कर पाते और भावनाओं के खेल में उलझे उलझे "बस यूँ ही" गमों के सैलाब में कभी कभी डुबकी लगा लेते।तुमसे मै पूछता क्यों तुमको इतना ख्याल है मेरा,क्यों तुम मुझसे बातें करती हो और जानती हो तुम कि मै ना आऊँगा कभी,फिर भी इंतजार करती हो मेरा।और तुम तो बस एक शब्द कहती "बस यूँ ही" और सच में "बस यूँ ही" जिंदगी से मुलाकात हो जाती हमारी उस रोज।
तुमको ऐसे पाने की चाहत और तेरी खातिर बस जख्मी दिल को राहत।एहसास कराता मुझे शायद तुम हो कही साथ मेरे।ऐसा लगता कि कोई बड़ा पुराना नाता है तुमसे,जो मुझे बार बार खिंच कर लाता है तुम्हारे पास वरना दो पल की बातचीत कभी भी जिंदगी की कहानी सी नहीं लगती।मेरी भावनायें तुम समझ जाती बिन कहे और तुम्हारी भावनाओं को मै महसूस करता और जब दिल पूछता आखिर ये क्या है,तो धीरे से कह देते उससे "बस यूँ ही"।तुम "बस यूँ ही" बस जाती मेरे जेहनोदिल में और इतेफाक से ही इक नयी दुनिया के हमसाये से बन जाते हम दोनों।
अपनी भावनाओं पर काबू पाना शायद तुमने ही सिखलाया था मुझे और आज जब मै दूर जा रहा हूँ तुमसे तो कहती हो "वापस आ जाओ ना"।भला क्यों आऊँ मै तुम्हारे पास,जबकि जानता हूँ कुछ नहीं है हमारे बीच वो तो "बस यूँ ही" है।तुम जानती हो ये जो बात है ना "बस यूँ ही" बिल्कुल वैसा ही है,जैसे हम किसी संवेदना को महसूस करते है पर देख नहीं पाते।नहीं होता पता हमे उसके पीछे का सच।क्या सम्मोहन होता इन बातों में वो तो बस वो ही जान पाता,जो बार बार दुहराता इन शब्दों को।
मै जानता हूँ बेवजह ही तुम इंतजार कर रही होगी मेरा "बस यूँ ही"।पर जानती हो मै सच कहूँ ये इंतजार बड़ा प्यारा होता है।तुम्हारे बिन तुम्हारी यादों के सायों के संग जीना तो बड़ा ही खुबसुरत एहसास होता है।चलो कोई बात नहीं हम नहीं है आपके पर बस इक गुजारिश है इस पागल दिल की "बस यूँ ही" बेवजह ही मिलती रहना तुम हर रोज,ताकि जिस जिंदगी को छोड़ के बड़ी दूर जाना चाहता था मै।"बस यूँ ही" उसे पाने की इक झूठी तमन्ना दिल में पालता रहूँ सारी उम्र।  

Wednesday, March 9, 2011

अब भी कुछ बाकी है शायद

मेरे खुद के अंतरमन में उलझे हुये मेरे सवाल अब मानों खुद ही अपने जवाब से विमुख होकर,एक संशय सा बन गये है।मौन,खामोशि और चुप्पी ये जो बिल्कुल शांत और गम्भीर भाव है,अब मुझे बेवजह ही चिल्लाने को मजबूर कर रहे है।वेदना और अंतरमन की पीड़ा का मिश्रित स्वरुप न चाहते हुए भी आँसू बन कर जगजाहिर होना चाहते है।अपने आप पर भी तो विश्वास ना रहा,तो भला इन आँसूओं का क्या पता कब ये राज-ए-दिल खोल दे।और सदियों से जो जख्म दफन था मेरी धड़कनों में,जिसका वजूद मेरे अस्तित्व की सम्पूर्णता का बोध कराता था और जो दर्द मुझे हर पल जीने की एक नयी प्रेरणा देता था।वो जख्म फिर से यादों की पोटली में सना एक घाव बन कर मेरे सामने आ जाये।
मैने सीखाया था तुम्हें प्यार करना पर खुद शायद प्यार निभाना सीख ना पाया।बादलों की गोद में मेरा प्यार चाँद सा अठखेलियाँ लेता मानों लुकछीप का कोई खेल,खेल रहा हो मेरे साथ।कभी तुम्हारी आँखों मे अपना चेहरा देखता और कभी तुम्हारी नजरों से खुद को देखने की कोशिश करता।बड़े मजबूर और असहाय से मेरे हाथ हर बार कोशिश करते तुम्हारी हाथों को थामने की पर बेचारे न जाने किस अनहोनी की आशंका से भयभीत रहते।तुमसे कहना चाहते कुछ मेरे अंदर के भाव पर सामने पाकर तुम्हें सब भूल जाते और भावविभोर होकर आत्मसात कर लेते मिलन के हर एक क्षण को।


चुपके चुपके दुरी का एहसास और जुदाई का भय मेरे जेहन में एक अजीब सा डर पैदा कर देते थे।शाम होना,सूरज का डुबना और फिर एक घनघोर अँधेरी रात जिसका सुबह होता ही नहीं।ख्वाब का आना,टुट जाना फिर भी ये भ्रम की "अब भी कुछ बाकी है शायद"।टुटे ख्वाबों के भी सच होने का इंतजार करना और रात के अँधेरे में भी सूरज की चाहत करना मेरे लिए तो बस आम बात हो गयी थी।
प्रेम के तस्वीरों से गढ़ा हुआ अपना आईना आज चूर-चूर हो चुका है,पर फिर भी हर टुकड़े में ही तुम्हारी तस्वीर देखता और अचानक चूभ जाता एक काँच का टुकड़ा मेरे हाथों में और मेरे खुन से लाल हो जाता फर्श।शायद एहसास दिलाता "अब भी कुछ बाकी है शायद"।ये थोड़ा सा जो भी बाकी है,वो ही तो मेरे जीवन के बुझे हुए दिये में कुछ तेल सा है और मेरे मन की सूनी बागवानी का दो चार फूल है,जो कभी कभी वही खुशबु पैदा करता है जो तुम्हारे करीब होने से महसूस करता था मै।


जीवन का सफर अब बस मेरी खातिर इक बोझ ढ़ोने जैसा हो गया है।बेमन से और बेवजह ही अपने साँसों को इक दिशा देने की कोशिश कर रहा हूँ मै।जमाने वालों को लगता है "अब भी कुछ बाकी है शायद" और मेरे सब खो जाने की पीड़ा का एहसास तो खुद मूझे भी आज तक नहीं हो पाया है।क्यों मिला संसार मुझको पूरा भरा-भरा सा पर इक संसार को पाने के वास्ते खो दिया मैने इक दुजा संसार।वही जो था मेरे प्यार का संसार।खुशबु की वादियों में प्यार का मौसम।मै तुम्हारे सामने और तुम मेरे सामने।गुमशुम से रहते कुछ पल और कुछ पल बुनने लगते अपने ख्वाबों की दुनिया।कभी हँसते और खिलखिलाते हम दोनों और कभी कही छुप-छुप कर एकांत में आँसू भी बहा लेते।
सब कुछ खत्म हो जाने के बाद भी "अब भी कुछ बाकी है शायद"।शायद वो तुम्हारी यादें है,शायद वो तुम्हारी सूरत है मेरी आँखों में बसी या शायद वो मेरा अपना वजूद ही है,जिसमे जिंदा हो आज भी तुम और आँसू हर पल बह कर यही बतलाते रहते है "अब भी कुछ बाकी है शायद"।मेरी धड़कनों में जो साँस चलती है,मेरी चाहतों में जो ख्वाब पलती है और कभी कभी जो बेमौसम ही मेरी रग-रग दिवाली हो जाती है,तुम्हारी यादों की जगमगाती फुलझड़ीयों से तो लगता है "अब भी कुछ बाकी है शायद"।और वो जो कुछ भी अभी बाकी है मुझमें,वही तो हमारे गुजरे अनोखे प्यार की सम्पूर्णता है।

Monday, March 7, 2011

प्रेम की जननीः-नारी

आदि से लेकर अंत तक,सृजन से प्रलय की आखिरी वेला तक।कुछ हो या ना हो पर "प्रेम" एकमात्र शाश्वत और सर्वविदित है।प्रेम के अभाव में ना तो सृष्टि की कल्पना ही कि जा सकती है और ना ही संसार के कालपुरुष का दर्शन।वैमनस्व,घृणा और ईर्ष्या जो भी प्रेम के विरोधी तत्व है,उनका भी अस्तित्व प्रेम के अस्तित्व में होने पर ही सार्थक है।यदि प्रेम नहीं है तो वैर भी नहीं है।क्योंकि प्रेम का ही अभाव और नाश वैरता को जन्म देता है।
प्रेम जगत का सर्वाधिक कोमल,सार्थक और संवेदनशील भाव है,जिसके बिना सारी सृष्टि निरर्थक है।यदि प्रेम के उद्भव और उत्पति पर दृष्टि डाले तो प्रेम बस स्त्री तत्व के ममत्व का ही दुसरा स्वरुप है।इक नारी के ह्रदय सरिता से छलकने वाले कुछ बूँद ही प्रेम की संज्ञा पाते है।विशाल ह्रदय धारण करने वाली नारी,अपने ह्रदयाकाश में संवेदनाओं और भावनाओं में लिपटे एक अनोखे प्रेम को छिपा के रखती है।नारी के बिना सृष्टि सम्भव नहीं है,और प्रेम बिना सृष्टि का संतुलित संचालन।नारी के प्रेम से ही सिक्त बाल्यमन प्रेम की प्रतिमूर्ति बन जाता है।नारी सृष्टि की सबसे कोमलतम ह्रदय को धारण करने वाली होती है।प्रेम की जननि होती है नारी जो कि प्रेम का ही इक मूर्त स्वरुप होती है।


सृष्टि का एक ऐसा भाव जिसके बस में इंसान क्या भगवान भी मानव तन धारण करते है और उस जननि के कोख से उत्पन्न हो खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।नारी ही सृष्टि है,संहार है,द्वेष है और प्यार है।उग्र रुप धारण करने पर यही रौद्र चण्डी हो जाती है,और सौम्य रुप में ये प्रेम की जननि,प्रेम की पावन गंगा सी बहती रहती है।जिस गंगा में डुबकी लगा नर और नारायण दोनों अपने अस्तित्व के धूमिलता को दूर करते है।


नारी शब्द का शाब्दिक अर्थ हैः-"न+अरि"।अर्थात जिसका कोई शत्रु ना हो,वही नारी है।भला जननि से शत्रुता कैसी,माँ से वैर कैसा?नारी कई रुपों में बस प्रेम का संचालन करती है।माँ बन कर प्रेममयी आँचल में लोरी सुनाती है,पत्नी बन जीवन के हर सुख दुख में साथ निभाती है।बहन बन भाई के रक्षा हेतु वर्त रखती है,तो पुत्री स्वरुप हमारे घर में लक्ष्मी का पदार्पण कराती है।नारी जगत की आधारभूत सता होती है,जो समस्त समाज और राष्ट्र को इक अनोखे डोर में बाँध कर रखती है,जो प्रेम होता है।


बहशी पुरुष वैर का वाहक बन कर नारी पर कई जुल्म करता है,पीड़ा पहुँचाता है उसको।पर नारी तो बस प्यार ही प्यार लुटाती है।पता नहीं कितना विशाल और व्यापक होता है नारी ह्रदय जिसमे पूरी सृष्टि को देने योग्य प्रेम समाया होता है।नारी और पुरुष जीवन रुपी सवारी के दो पहियें होते है।एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं।पर "प्रेम की जननि" ये नारी सम्पूर्ण सृष्टि की इकलौती नवनिर्माणात्री होती है।


नारी पूज्यनीया है,साक्षात ईश्वर का स्वरुप है नारी और प्रेम सृष्टि का अग्रदूत।नारी ही प्रेम की वीणा के हर तार को झंकृत करने की क्षमता रखती है,जिसका संगीत जीवनामृत बन कर इक नयी जीवन की कल्पना को साकार करता है।नारीत्व ना तो नारी की विवशता है,वो तो ममत्व की पहचान है,और प्रेम की आशक्ति है।नारी इकलौती सृष्टि की सृजनदायिनी है,उसके अस्तित्व को नकारना खुद के अस्तित्व को नकारना जैसा है।नारी ही प्रेम है और प्रेम ही नारी के ममत्व का स्वरुप।