Sunday, February 5, 2012

कवि: एक "तत्क्षण योगी"


एक योगी स्वाध्याय,आत्मचिंतन और इंद्रियों पर नियंत्रण कर स्वयं को मन का स्वामी बना लेता है।मन की चंचलता को स्थिर कर एक कुशल सारथी की भाँति इच्छाओं और कामनाओं की लगाम अपने हाथों में लेकर स्वयं का सम्पूर्ण जीवन योग,साधना और आत्मचिंतन में लगा देता है।उसका स्वयं पर नियंत्रण ही उसे पारलौकिक सिद्धियों का अधिष्ठाता बनाता है।उसकी आत्मा हर पल एक अदृश्य डोर से परमात्मा के सानिध्य में होती है।जब कोई साधारण व्यक्ति स्वयं की इंद्रियों को नियंत्रित कर लेता है, और मन को स्थिरता देने लगता है तब उसके मन रुपी रथ के सारथी स्वयं भगवान हो जाते हैं।वे उसके जीवन-रथ को उस मार्ग की ओर ले जाते हैं जो शाश्वत सत्य का लक्ष्य है।


एक कवि जब रचनायें करता है और अपने स्वभाव के विपरीत प्रेम और घृणा दोनों की कविता लिखता है।उस क्षण उसकी मनःस्थिती स्वयं के वश में ना होकर उस परमसत्ता के हाथों में होती है।उस एक क्षण में वह विचारों के धरातल से ऊपर उठ जाता है और एक कर्मठ योगी की तरह ही काव्य साधना करता है, पर अगले ही क्षण, जब उसकी स्मॄति से, छन्द,शब्द और लय सभी का लोप होने लगता है,  तब वह पुन: स्वयं को धरातल के करीब पाता है।वह सोचता रह जाता है, आखिर उसने क्या लिख दिया?और वह भावना, जो उसकी कविता में है,उसके जीवन में क्यों नहीं?वह तो स्वभाव से वीर रस का पुजारी है, फिर कैसे वह प्रेम की कविता लिख पाया?कवि की यह स्थिती उसे "तत्क्षण योगी" की संज्ञा देती है।वह पूर्णरुप से एक योगी नहीं है, पर वह क्षण, जिसमें उसकी मन की आँखें खुलती है,उसकी आत्मा में संतुष्टि और समर्पण की शक्ति नीहित होती है,उस एक क्षण में, वह क्षण भर के लिये काव्य योगी बन जाता है।


हर कला एक प्रकार का योग ही है, और कलाकार एक तत्क्षण योगी, क्योंकि जितने समय वह अपने कला में रत होता है, उसकी अंतरात्मा पर उसका वश नहीं होता।प्रकृति रुपी परमात्मा, जिसकी कला की प्रतिमूर्ति ये सम्पूर्ण सृष्टि और सृष्टि के सारे जड़-चेतन हैं वही प्रकृति, कला के माध्यम से नवसृजन की परिकल्पना करती है।प्रलयंकारी महाकाल शिव जब स्नेह और प्रेमरत होकर "लास्य नृत्य" करते हैं, तो नवनिर्माण होता है,जिससे कितनी रचनायें सम्पन्न हो जाती है तो कितनों की भूमिका तैयार हो जाती है-जो भविष्य के धरातल पर रची जायेगी।वहीं दूसरी ओर जब क्रुद्ध होकर महाकाल "तांडव नृत्य" करते है तो विनाश की किलकारियाँ चारों ओर गूँजने लगती है।सृजन के किस्से टलने लगते हैं और प्रलय की अनहोनियाँ चारों ओर सम्पूर्ण सृष्टि में दृष्टिगोचर होने लगती है।


कवि कैसे वह सब देख पाता है, जो एक सामान्य व्यक्ति नहीं देख पाता?आखिर वह भी तो एक साधारण इंसान सा ही है,पर भला किस शक्ति के माध्यम से वह दिव्य दॄष्टि पा लेता है।कैसे उसकी कल्पनायें भविष्य के किसी आगामी क्षण का स्वरुप गढ़ लेती है?आखिर यह कल्पना आती कहाँ से है? और फिर वह कवि कैसे स्वयं को यथार्थ से परे कर कल्पनाओं के आकाश में उड़ान भरता है।इन प्रश्नों का जवाब बड़ा ही गूढ़ और अध्यात्मिक है।कवि अपनी तत्क्षण योग साधना से ही वह सब देख पाता है जो एक सामान्य इंसान नहीं देख पाता।वह वही कल्पना करता है, जो ईश्वर उससे करवाता है।कागज के पन्नों पर लिखता तो वही है, पर हर शब्द,छन्द,भावनायें और कल्पनायें उस ईश्वर की होती है, और कवि एक तत्क्षण योगी की भाँति अगले ही पल फिर यथार्थ का दामन थाम लेता है।वह अपने वास्तविक स्वभाव में आ जाता है।उसका और उसके द्वारा बनाये गये काल्पनिक नायक के चरित्र में जमीन-आसमान सा अंतर होता है।पाठक और श्रोता उसकी हर कविता में कभी उसे देखते है तो कभी स्वयं को ही वहाँ खड़ा पाते है।पर वास्तविकता यह होती है कि वह ईश्वर का भिन्न-भिन्न स्वरुप होता है, और हम, ईश्वर के रचनासंसार की नाटिका के क्षणभंगुर नायक-नायिका, स्वयं में ईश्वर का स्वरुप देखने लगते हैं।हम कल्पना के संसार में स्वयं को सफलता के काफी निकट पाते हैं, बस कल्पना का ही संसार ऐसा होता है, जिसमें हम हर अनछुएँ और अनुत्तरित भावनाओं का सामिप्य पाते हैं।


कवि अपने काव्य के माध्यम से प्रकृति के अद्भुत रहस्यों का रहस्योदघाटन करता है।वह संसार को एक योगी की भाँति ही शाश्वत सत्य का स्वरुप दिखाता है।वह कभी नवजीवन के गीतों द्वारा प्राणियों में नवसंचार करता है तो कभी ओज भरे काव्य के माध्यम से सुसुप्त जनमानस को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करता है।उसकी काव्य साधना एक नयी युग की कहानी लिखती है।उसकी तत्क्षण योग साधना एक ऐसे अमर काव्य की रचना करवाती है जो युगों युगों तक शाश्वत और अमिट हो जाती है।

शांत वातावरण में मौन होकर,आँखें बंद कर,ऊपर की ओर एकटक देखता कवि आखिर क्या करता है?वह एक प्रकार की काव्य साधना में रत होता है।हमारी ब्रह्मांड में हमारे चारों ओर अदृश्य रुप से कई ऐसी तरंगे मौजूद हैं, जो खुद में नये संगीत और नये विचारों की अथाह निधि संचित किये हुये है।एक कवि मौन होकर,आँखें बंद कर एकांत में उन विचारों को तत्क्षण स्वयं में ग्रहण करता है और कोरे पन्नों पर उतारता जाता है जो एक नयी रचना को जन्म देते हैं, पर अगले ही पल वह विचार फिर कवि से काफी दूर हो जाते है।वह उस तत्क्षण सुख को हमेशा के लिये पाना चाहता है।एक पूर्णयोगी बनना चाहता है पर निरंतर उस क्षण की अद्भुत मादकता को पुनः खुद में महसूस करने के लिये वह फिर हाथों में लेखनी लिये एकाग्र होकर,आँखें मूँद कर एकांत में एक नयी रचना के सृजन में लग जाता है और विचारों की अथाह सरिता से दो बूँद प्राप्त करने हेतु चिंतन करने लगता है।उस एक पल के परमानंद को पाने की मृगतृष्णा न जाने कवि को कितनी बार "तत्क्षण योगी" बना देती है।

Thursday, January 12, 2012

हे मेरे प्रेम! तुम लौट आओ ना फिर

हे मेरे प्रेम! तुम कहाँ हो?क्यूँ ना नजर आते हो आजकल मुझे।क्या तुम अबतक मुझसे रुठे हो,कभी आवाज भी नहीं देते या भूला दिया है तुमने मुझे।मै अब भी अक्सर हर रात तुम्हारा इंतजार करता हूँ उसी छत पर जहाँ तुम मुझसे पहले ही पहुँच कर मेरा इंतजार करते थे और मेरे पहुँचने पर दुसरी तरफ मुँह फेर कर अपनी नाराजगी जाहीर करते थे।जब मै तुमको मनाकर थक कर एक ओर बैठ जाता तो तुम खुद ही आ जाते थे मेरे पास।हे मेरे प्रेम! तुम तो मेरी प्रेमिका के स्वरुप में थे ना जो मुझपर जान छिड़कती थी,जो मुझको बेतहासा पागलों की तरह चाहती थी,जो मेरे बगैर एक पल भी नहीं रह पाती थी।पर क्या आज मौसम के बदलने से मेरी प्रेमिका भी बदल गयी,प्रेम का स्वरुप भी बदल गया।
हे मेरी सलोनी साँवली! मेरे साँसों में बसने वाली।क्या अब तुम्हें जरा भी फिक्र नहीं मेरी इन धड़कनों का।तुम्हारे बिन ये बड़े रुक रुक के चलते है।पता है तुम्हें हर वो रात कैद है अब भी मेरी यादों में।जब भी याद करता हूँ हँस पड़ता हूँ।जानती हो क्यों?क्योंकि कभी कभी ताजुब्ब सा होता है तुम्हारे ना होने पर भी मेरे होने का।हे प्रियतमा! आँसू बहते है पर अब इनका मोल नहीं है जो तुम नहीं हो इन्हें पोंछने वाली।क्या मेरे सारे प्रश्नों का जवाब दिये बिना ही तुम चली जाओगी।अक्सर तुम कहती थी "आप सवाल बहुत करते हो" पर अब क्यों ना आती हो जवाब लेकर मेरे बेवजह सवालों का।
तुम्हें याद करते करते रात ढ़लती जाती है और मै ख्वाब में ही सही तुमसे मिलने की जिद लिये आँखों को जबरदस्ती बंद करता हूँ।पर ना जाने क्यूँ तुम मेरे ख्वाबों से भी रुठ गयी हो।हर सुबह इसी उम्मीद के साथ आँखें खोलता हूँ कि कही तुम्हें सामने देख लूँ पर स्मृति की रेखाओं से बहुत दूर हो गयी हो तुम।ह्रदय का हाल बड़ा ही अजीब है आजकल तुम्हारे बाद।मेरा ये लाचार प्यार बस आहें भरता भरता हर दिन गुजारता जाता है।तड़पता हूँ और फिर मुस्कुरा लेता हूँ ये सोच कर की कही ना कही,कभी ना कभी तो मिलोगे तुम।हमारे प्यार की इस कहानी में कई बार ऐसा हुआ है कि हम बार बार बिछड़ कर फिर मिल गये है।पर अब इस दिल को सब्र नहीं है खुद पर।बेचार अक्सर पुकारता रहता है तुमको।
हे प्रियतमा! आकाश की ऊँचाईयों में कही गुम सा हो गया है मेरा वो हर एक शब्द जो मैने तुमसे कहे थे।मेरे जीवन की हर शाम बस तन्हाईयों से भरी हुई है।महफिल में भी सूनापन घेरे हुये है मुझे और हर पल तुम्हारी याद तुम्हें भूलने के सभी प्रयत्नों को व्यर्थ सा करता जा रहा है।शायद तुम्हारे बाद अब मेरे जीवन में रात का ऐसा सन्नाटा छाया है जिसे तुम्हारे प्यार के अलावे और कुछ नहीं मिटा सकता।सुनता हूँ अब भी धड़कनों में तुमको और उस चाँद से रोज सिफारीश करता हूँ तुम तक मेरे अनकहे संदेशों को पहुँचाने का।हे प्रियतमा! क्या तुम अब उस चाँद में मेरी छवि नहीं निहारती।क्या तुम सच में अब मुझसे प्यार नहीं करती या बस दो पल का प्यार ही मेरी किसमत में था।
तुम्हारे बाद कुछ अजीब सी बहती है ये हवायें कभी कानों में कुछ कहती है तो कभी रास्ते के पत्तों को उड़ाकर जमीन पर तुम्हारा नाम लिख देती है।तुम्हारे बिन चाँद मुझको दिलकश नहीं लगता।फिकी लगती है सारी फिजाएँ और मायूस सा लगता है हर आलम।पता है तुम्हें तुम्हारे बाद अब वो झील भी नहीं बहती पहले की तरह।खुद ही अपने आँसूओं को धोता धोता दिन से रात कर देता है।सामने का वो मोड़ जहाँ से हम अक्सर एक दुसरे की हाथों में हाथे डाले चलते रहते थे अब नहीं मुड़ता कही।शायद वो भी अब लक्ष्यविहीन हो गया है तुम्हारे बाद।तुम्हारे बाद बस यादों की हवायें चलती है जो मेरे ह्रदय पृष्ठों पे रेत से लिखे तुम्हारे नाम को पल भर में तहस नहस कर देती है।तुम्हारे बाद आसमां में चाँद काले बादलों की ओट में ही छुपा रहता है।शायद अब उसकी हिम्मत नहीं मुझसे नजरे मिलाने की या कही तरस आता हो उसे मेरे हाल पर।
एक बात पुछू तुमसे क्या मेरे बाद तुम्हें मेरी याद नहीं आती कभी।क्या बस चंद पलों में कई जन्मों के रिश्ते को भूला दिया तुमने।क्या तुम्हें मेरी कोई परवाह नहीं होती।शायद तुम सच में भूल चुकी हो मुझे तभी तो अब कभी हिचकीयाँ भी नहीं आती मुझे।जानती हो आज मैने अपनी आँखों से एक करार किया है।तुमसे मिलने पर इनसे बहे हर एक आँसूओं का बदला लूँगा।टूट चुका हूँ पूरी तरह और बिखर गये है मेरे सारे ख्वाब किसी रेत के महल की तरह।मै तुमको नहीं खोना चाहता हूँ इसलिए हर दर्द को मरहम बना कर खुद में ही छुपाये रखता हूँ।बहुत कुछ खो दिया है मैने अब तक।पर यदि इस बार तुम्हें खो दूँगा तो कही बर्दाश्त ना कर पाऊँ और तुम्हारे बाद हमेशा के लिये आँखें बंद कर सो जाऊँ।यदि अब तुमने थोड़ा भी देर किया आने में तो सच में हे प्रियतमा! मै चिर निद्रा की आगोश में चला जाऊँगा सदा के लिये तुमसे और इस दुनिया से काफी दुर।हे मेरे प्रेम! तुमने क्यों खेला मेरे साथ ऐसा खेल जिसने मुझे बस दर्द के सिवा कुछ ना दिया।हर जीतने में भी हारता रहा मै और तू हर बार मुझे आँसूओं से पुरस्कृत करता रहा।हे मेरे प्रेम! लौट आओ ना फिर बस एक बार मेरी खातिर।बस एक बार.....।क्योंकि तुम्हारे बिना कुछ नहीं है मेरे पास सिवाये दर्द  के और पुरानी यादों के।तुम ही कहो ना कितना सहूँ मै दर्द।हे मेरे प्रेम! तुम लौट आओ ना फिर।मुझे पता है तुम गुस्सा हो मुझसे क्योंकि मैने तुम्हारी कदर ना कि पर क्या मुझे बस एक बार मौका नहीं दोगे सुधरने का।