Friday, August 26, 2011

ढ़ूँढ़ रहा हूँ अपने दर्द की कोई शक्ल

वह स्पर्श भूला नहीं हूँ मै या शायद मेरे जेहन में इस कदर समा गया है वो कि उससे विरक्ति स्वयं से वैराग जैसा है।दूर से आती हुई मदमस्त पवन हौले से मेरे कानों में कुछ कहती है और हर बार सुनने की कोशिश में उस स्पर्श का स्मरण हो आता है जो हुआ था मुझको उस पल जब तुम दूर थी मुझसे।वह स्पर्श शायद मेरे दर्द के मंजरो को खुद में समेटे हुये है।ज्यों छुता है मुझे सारा शरीर अद्भूत स्पंदन से कंपित हो उठता है।ह्रदय की झंकारों में एक नयी वेग का आगमन होता है जो बहा ले जाता है उन सभी यादों को जिन्हें न जाने कब से ह्रदय में कैद कर के मै खुद को निश्चिंत समझ बैठा था।
खुद से हार कर आज पेश करना चाहता हूँ अपने दर्द को तुम्हारे समीप।जिससे तुम्हें भी दर्द की शक्ल में अपनी परछायी दिख जाये और एहसास हो इसी बहाने मेरे अर्थपूर्ण दिवानेपन का।दर्द को आकार देना शायद थोड़ा मुश्किल है मेरे लिए क्योंकि जब तुम दूर होती हो तो विरह लगन में तपता हुआ सिकुड़ जाता है वो और जब पास आती हो तो तुम्हें खुद में अभिव्यक्त करने की असमर्थता से व्याकुल होकर अपना आयाम बढ़ाने की ललक में फैल जाता है।कभी यह दर्द मेरी आवाज में घुल जाता है,तो कभी नैनों में अश्रु बन नजर आता है।पर हर बार अपनी भिन्न भिन्न रुपों के संग यह मेरे ह्रदय पर आघात करता रहता है।कही ऐसा ना हो कि इस दर्द को शक्ल देता देता मै खुद अपनी स्वयं की शक्ल ही खो बैठूँ और दर्द का एक गुबार बन कर सहेज लूँ स्वयं में विरह और प्रणय के हर एक उस क्षण को जिसमें दर्द की सर्द रातों का अँधेरा मेरे भविष्य के सभी रास्तों को गुमशुदा कर दे।
बिल्कुल अकेला हूँ मै आज अपने कमरे में खुद के संग।रात की चादर ओढ़े बादलों का झुंड भी आज अपना दर्द बयां कर रहा है।सामने प्याले में रखी हुई है मेरे दर्द की दवा।पर न जाने क्यों वह दवा भी मुझे किसी मर्ज सी लग रही है आज।शराब को कैसे कराऊँ स्पर्श अपने उन होंठों का जिनपर बस तुम्हारा अधिकार है।तुमने ही शायद सौंपा था इन्हें रस की अनंत प्यालियाँ जिनकी तृप्ति मधु की इन प्यालियों में कहाँ?ये तो प्यासा ही छोड़ देंगे बीच राह में मुझे।पर तुम्हारे होंठों का वह मादक रसपान आज भी अंदर तक कही तृप्ति का एहसास कराता है मुझे।सोचता हूँ क्या करुँ,क्या ना करुँ?पर स्मरण में भी तुम्हारे स्पर्श का सुख मुझे संकोचित कर देता है ऐसा करने से।शायद कुछ दबा हुआ है इन यादों के साये में जिन पर तुम्हारा अक्स अब भी चिन्हीत हो रहा है।
हिमगिरी के हिम पिघल कर जलकण बनते जा रहे है और मेरे दर्द का हिमखण्ड आँखों से आँसू बन बरस रहा है।पर अपने खारेपन के कारण वह भी असमर्थ है मेरी प्यास बुझा पाने में।सागर के इतने पास होकर भी मै कितना प्यासा हूँ यह तो शायद मेरी प्यास को ही पता है।यह प्यास भी मेरे दर्द की ही एक शक्ल है,जो तुम्हारे सान्निध्य से ही बुझ सकती है।पता है तुम्हारा स्पर्श बस मेरे तन को नहीं झकझोरता बल्कि रुह को भी एक पल अचेतन सा बना देता है और कुछ पल शीथिल बना यह मुकदर्शक की तरह स्वयं की पीड़ित अवस्था को देखता रहता है और सोचने को विवश हो जाता है,कि क्या यह मेरे दर्द की कोई शक्ल है या मेरे शक्ल में ही दर्द का अक्स छुपा हुआ है।दर्द का पर्वत बन गया हूँ मै तुम बिन और यह तुम्हारे पास से आने वाली हर एक यादों की हवाओं से टकरा कर कमजोर होता जा रहा है दिन पर दिन।
घुल गयी है पीड़ा की कुछ सर्द लकीरें मेरे अंतरमन में और उन लकीरों में अब भी छुपा है अपना कल जो अक्सर मेरे ख्वाबों में आता था और मै तभी तुम्हें यह बताने की कोशिश करता और हर बार जाग जाता था।सागर की गहराईयों में बहती मेरे दर्द की कस्तियाँ कही मझदार में जाकर असमर्थ हो तुम्हें पुकारती है और तुम किसी किनारे सा आश्रय देती हो उन्हें।तुम्हारे पास होते हुये मुझे ऐसा एहसास होता जैसे ये पल अब यूँही थम गया है।एक पल भी आगे नहीं बढ़ेगा पर एकाएक जब मेरी हथेली खाली होती और तुम दूर चली गयी होती हो तो इन हथेलियों पर बस आँसूओं की दो बूँद ही नजर आती है।अपने दर्द को शक्ल देते देते मै अब थक सा गया हूँ।जैसे मानों वजनदार चीज को खुद में कही धारण किये चला रहा हूँ न जाने कब से।अब जब तुम नहीं हो पास तब मै चाहता हूँ सारा वजन दिल का हल्का कर लूँ और अकेला कमरे में खुद से बातें करता करता सारे राज खोल दूँ मै अपने सामने जो कब से दिल की गहराईयों में दफन थे।शायद कही कोई राज छुपाये हो खुद में मेरी दर्द की शक्ल का कोई स्वरुप।

Sunday, August 14, 2011

"मै अब तुमसे भी बड़ा हो गया-माँ"

कोमल भावनाओं की जितनी भी अभिव्यक्तियाँ मेरे अंतरमन में समायी है,वो सब तुम्हीं से पाया है मैने।तुम्हीं ने आभास कराया है मुझे मेरे अस्तित्व का और सौंपा है मुझे मेरा वजूद।तुम्हारे बिना मै स्वयं की कल्पना भी नहीं कर सकता माँ।माँ मेरी कोई भी पहचान बस तुम तक ही सीमित है।आज भले बहुत बड़ा हो गया हूँ मै पर तुम्हारे स्नेह और आशीर्वाद के बिना सब कुछ व्यर्थ है।ये देखो ना माँ मै कितना लम्बा हो गया हूँ।तुम तो मेरे सामने छोटी हो गयी माँ।बचपन में तुम मेरी उँगलियों पर हाथ रखकर कहती बेटा तुम्हें इतना बड़ा होना है।और आज सच में मै तुमसे बड़ा हो गया माँ।कल तक दो कदम भी चलने को जिन छोटे छोटे हाथों को तुम्हारी हाथों की जरुरत पड़ती थी।वो आज खुद चल रहा है माँ।सच में मै तुमसे भी बड़ा हो गया माँ।बहुत बड़ा जिसमें शायद तुम बहुत छोटी हो गयी हो और अब तुमसे दूर रहते रहते शायद याद भी नहीं करता मै तुमको।
अक्सर तुमको चिंता होती मेरे बारे में।अक्सर तुम मेरे अच्छे के लिएँ सोचती और मै तुम्हारी इस चिंता को कमजोरी समझ हर बार तुम्हारा दिल दुखा देता।मुझे लगता कि मुझे खुद से दूर कर के अपने दिल से भी दूर कर दिया है तुमने।पर यह कभी ना समझ पाया कि हर पल जो मेरे दिल में धड़कन बन कर धड़कती रहती है।वो तो तुम्हीं हो माँ।जो हर पल मेरे साथ होती और जब कोई परेशानी होती तो बस दिल पर हाथ रख देता और सुकुन मिल जाता मुझे।कभी कभी जब अकेला होता और दुनियादारी को कुछ पल पिछे छोड़ खुद के बारे में सोचता।तो मुझे मेरे हर एक विचार में मुस्कुराती,प्यार से अपने पास बुलाती तुम ही नजर आ जाती माँ।जो शायद मेरी सारी गलतियों को माफ कर फिर से मुझे अपनी ममता के स्नेहाकाश में चैन और सुकुन देती।मै गुनहगार हूँ आज माँ तेरा और तेरी ममता का।क्योंकि मैने हर बार बस तुम्हारे प्यार के बदले तुम्हारा दिल दुखाया है।और अपने वर्चस्व की लड़ाई में हर बार हारा हूँ मै तुम्हें जलील कर खुद से।
कल जब तुम्हारी भेजी हुई तस्वीरों को देख रहा था।एकाएक तुम्हारी तस्वीर पर नजर रुक गयी।मै मायूस हो गया माँ।ये देखकर कि तुम्हारे कोमल प्रफुल्लित चेहरे पर झुर्रिया आने लगी है।क्या माँ मै इतना बड़ा हो गया कि तू बूढ़ी हो गयी।नहीं माँ मै अभी भी तुम्हारा छोटा सा लाडला बन कर ही रहना चाहता हूँ।मै रोक दूँगा वक्त के सारे पहियों को,मै थाम लूँगा हर एक उस लम्हें को जिसमें तुम्हारी गोद में खेलता मै नन्हा सा हूँ।मै तुम्हें उम्र के परावों में उलझने नहीं दूँगा।पता है माँ मुझे तुम्हारे चेहरे पर मायूसी का कोई भी भाव तनिक भी नहीं सुहाता है।क्यों मायूस हो तुम?क्या चिंता है तुम्हारी?यही न कि मै अच्छा बन जाऊँ और जिन्दगी भर खुश रहूँ।तू चिंता मत कर माँ मै तुम्हारे सभी अरमानों को पँख देकर एक दिन व्योम की सैर जरुर करवाऊँगा।
उलझनों में उलझी मेरी जिन्दगी नहीं देती है समय खुद के बारे में सोचने की भी और एक तू है जो खुद के बारे में कभी नहीं सोचती बस मेरे बारे में सोचती है।माँ आज एक बात मेरे दिल में है,जो मुझे तुमसे कहनी है।मत रुठना कभी अपने लाडले से माँ।तुम रुठ जाती हो जब तो बहुत बुरा लगता है।पता है तुमको पूरे दिन इंतजार करता हूँ कि कब तुमसे बात होगी और मै ये बताऊँगा ,वो बताऊँगा।और बस तुमसे बात कर लेता हूँ सच में आत्मा को संतुष्टि मिल जाती है।सब कहते है कि अब तू बड़ा हो गया है।छोटा बच्चा नहीं जो हर छोटी बड़ी बात माँ से बताता है।पर उन्हें क्या पता मै आज भी तेरे सामने कितना छोटा हूँ।एक तू ही तो है सारी दुनिया में माँ जिसकी हर एक बात में बस "हाँ" है मेरे लिये।जिसकी सारी खुशियों की मँजिल बस मै हूँ,बस मै।
कभी कभी बहुत डर जाता हूँ यह सोच कि क्या होगा मेरा कल जब तू ना होगी।माँ सच में बहुत अकेला हो जाऊँगा मै।तुम्हारे बिन किससे झगरुँगा माँ?तुम्हारे बिना किससे अपनी छोटी बड़ी हर बात कहूँगा मै?कौन होगा अब बस मेरे बारे में सोचने वाला?किसकी आँचल में सबकुछ भूल बस चैन की नींद सोता रहूँगा?किसकी गोद में रहकर मुझे स्वर्ग की शानोशौकत भी फीकी लगेगी?घर पहुँच कर बड़े दिन बाद किससे मिलने की बेसब्री होगी?अब ना कोई इंतजार होगा तुम्हारी किसी फोन का और ना ही तुम्हारी प्यारी सी आवाज सुन पाऊँगा मै।बस अपनी धड़कनों में तुझे महसूस कर थोड़ा सुकुन मिलेगा तुम्हारे साथ होने का पर अगले ही पल तुम्हें सामने ना देख कर इन आँसूओं को कैसे रोक पाऊँगा मै?तुम्हीं कहो ना माँ क्या करुँगा मै?इसलिए माँ आज कुछ माँगना चाहता हूँ तुमसे कि बस हरदम यूँही अपने आँचल की ओट में छुपाये रख मुझे।बाहरी दुनिया में दम घुटने लगता है मेरा।


समय का चक्र निरंतर बढ़ता बढ़ता जाने कहा से कहा लेकर आया है हमे।कल तक एक पल भी तुमसे दूर नहीं रह पाता था मै और आज न जाने कितने सालों से दूर हूँ तुमसे।हर वो उमंग त्योंहारों का और उत्साह अपनों के साथ होने का भूलता जा रहा हूँ मै।वक्त के दरिया ने बीच मझदार में लाकर बिल्कुल अकेला छोड़ दिया है मुझे।कोई किनारा नजर ही नहीं आता।कुछ पाने की चाहत में सब कुछ गँवाता हुआ मै कैसा बन गया हूँ समझ ही नहीं आता।
निःशब्द हूँ तुम्हारे समक्ष आज अपनी भावनाओं की चिता जला कर,दुनियादारी के बोझ तले दब गया हूँ मै।माँ आज फिर मुझे तेरे उन ऊँगलियों की जरुरत है,जो बचपन में मुझे चलना सिखाती थी।मुझे आज फिर तेरी उस मुस्कुराहट की जरुरत है,जो मुझे निश्चिंत कर देती थी कि हो ना हो मै जो भी कर रहा हूँ सही कर रहा हूँ।आज तेरी याद ने मुझे याद दिलाया मेरे खुद के होने का।क्योंकि बड़े दिन हो गये थे मेरे खोये हुये।न जाने किन पगडंडियों से होता हुआ किस जर्जर सी झोपड़ी में रहने लगा था मै जो बाहर से बड़ा सुनहरा दिखता था पर अंदर कुछ नहीं था।माँ आज भले मै तुमसे कद में काफी बड़ा हो गया हूँ पर अब भी मेरा बचपन जिंदा है मुझमें जो मुझे तेरी ममतामयी मूरत का आभास कराता है।और हर रोज तेरी इस ममतामयी मूरत को अपने आँसूओं के दो फूल चढ़ा आता हूँ मै आज भी।  

Wednesday, August 3, 2011

शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी

मन कभी बिल्कुल आवारा सा बन न जाने कहाँ कहाँ से घूम कर आता है।कभी तुम्हारे साथ का पहला दिन याद करता है तो कभी उस एहसास को खोजने निकल पड़ता है जिसमें तुमसे मिलन के हर एक क्षण का लेखा जोखा अब भी वैसे ही यादों के पन्नों पे ज्यों का त्यों लिखा हुआ है।धीरे धीरे सम्मोहीत होता जाता है ये मन तुम्हारी मनगठंत कल्पनाओं में कही खोकर।पर जब हाथ बढ़ाकर छुता है तुमको तब कुछ नहीं होता है उसके पास सिवाय तुम्हारी यादों के।ये पूरी जिन्दगी क्या यह तो सात जन्म भी यूँही गुजार देगा बस तुम्हारी यादों के संग।पता नहीं कैसा मनभावन आईना है यह तुम्हारी यादों का जिसमें वो खुद को हर बार देखकर एक नयी ताजगी और उमंग के संग प्रफुल्लित हो उठता है।शायद बीते दिनों में स्वयं के बौनेपन को देख आज का यह विशाल मन अहंकारवश हँस पड़ता है।पर उसी हँसी में छुपी होती है एक ऐसी उदासी जो बस स्वयं ही देख पाता है वो और बेचैन होने लगता है।
आकर्षण के चरमोत्कर्ष पर हमारा प्यार मिला था कभी।जिसका आधार बस मै था और तुम थी।तुम वो थी जो अक्सर मेरी कल्पनाओं में किसी धुँधली तस्वीर सी आ जाती और मुझसे पूछती "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" पर मै कुछ पल बिल्कुल शांत रहता।क्योंकि अब तक ना मुझे स्वप्न पर विश्वास था और ना ही जन्म जन्मांतर के अटूट रिश्तों की समझ।अब तक तो बस प्यार की परिभाषा मेरे लिये कुछ वैसी थी जहाँ बस आनंद का आगमन था विरह या संताप ना था।क्योंकि अभी अभी तो आया था मै प्यार के इस अनूठे खेल में शामिल होने।शायद अभी बहुत से नियम और शर्तों को मै नहीं जानता था।अभी बहुत ही कच्चा था मै,परिपक्वता आनी बाकी थी।
हर रात एक अनोखे एहसास को तकिये से दबा कर सो जाता उसपर और फिर वैसे ही तुम्हारी धुँधली सी छाया मेरे सामने आ जाती और पूछने लगती "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" पर मुझे कहा याद था कोई जन्म पुराना।मेरी यादाश्त तो इतनी कमजोर थी कि रात का देखा हुआ ख्वाब भी भूल जाता मै सुबह तक।ऐसे में पिछला जन्म याद करना जरा मुश्किल था।यूँही जीवन में कई विचारों और भावनाओं से गुजरता हुआ एक दिन मिल गया तुमसे।याद है तुम बस स्टाप पे अकेली खड़ी बस के आने का इंतजार कर रही थी और मै तुमसे बिल्कुल अपरिचीत होते हुये भी चुपचाप तुम्हें निहारे जा रहा था।शायद कोई अदृश्य सा बंधन खीँच रहा था मुझे तुम्हारी ओर।एक पल हवा के झोंकों से तुम्हारी जुल्फ तुम्हारे चेहरे को ढ़ँकने लगी।मन हुआ की दौड़ कर जाऊँ और उन्हें सँवार दूँ।पता नहीं किस अधिकार से ऐसा करने को सोच रहा था मै।पर अगले ही क्षण एहसास हुआ तुमसे परायेपन का।
अब मुझमें एक नयी भावना का जन्म हुआ जो शायद इंतजार था।घंटों बस स्टाप पर करता रहता तुम्हारे आने का इंतजार और जब तुम आती तो यूँही निहारता रहता और तुम्हारे जाने तक एकटक देखता रहता तुमको पर कुछ नहीं कह पाता।शायद मै भूल गया था अपना कोई बिता कल पर इन नजरों को शायद अब भी याद थी वो सारी गुजरी हुई अपनी कहानी।शायद सच में तुमसे किसी जन्म का नाता था मेरा।वरना यूँही लाखों की भीड़ में क्यों तुमपे ही आकर निगाहें अटक जाती।एक रोज जब टूट गया मेरी अधीरता का बाँध तो मैने पूछा तुमसे "क्या तुम मुझे जानती हो" और तुम बड़े ही परीचित से लगे इस दिल को उस अपनी एक हँसी के साथ।उस रोज पहली बार तुम्हारे साथ बस पर बैठा मै तुम्हारी मँजिल तक गया और ऐसा लगा कि कभी की कोई अधूरी प्यास थी दबी जिसे दो बूँद नसीब हो गया हो।तुम्हारी हर अदा बोलने की,देखने की और सोचने की।न जाने क्यों कुछ जाना पहचाना सा लगा।ऐसा लगता कि कभी तुमसे मिल चुका हूँ मै पहले और अब तो मेरे ख्यालों में आने वाली वो तस्वीर भी कुछ साफ साफ सी दिखने लगी।और अब समझ आने लगा मुझे वह प्रश्न "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।"
आज सूने मन के आँगन की दहलीज पर बैठा मै सोच रहा हूँ कि क्या सच में किसी जन्म में हम मिले थे तुमसे।आज जब तुम मेरी नहीं हो।किसी गैर की हो और अब शायद तुम भूल भी गयी होगी मुझे।पर उस प्रश्न की सार्थकता आज भी है कि "शायद किसी जन्म में हम मिले थे कभी।" तब तुम सिर्फ मेरी थी और तुम पर मेरा पूरा अधिकार था।पर न जाने क्यों आज तुम मेरी नहीं हो।हो ना हो पर जरुर अपने वादे में खोट हुई होगी जब हम सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किये होंगे।पर बहुत कम दिन की जानपहचान में भी ऐसा लगता था मुझे की तुम मेरी कोई पूर्वपरीचित हो।मेरे रुह की तमन्ना भी कुछ सुकुन सा पा लेती जब कर लेती आत्मसात उस एहसास को खुद में जिसमें तुम मेरे साथ हो हर पल।मै आज फिर इंतजार कर रहा हूँ किसी नये जन्म का और इस बार मिलना तो यूँ ना मिलना जैसे मिली हो इस बार।इस बार सारे बंधनों को तोड़कर तुम बस मेरी "तुम" बन कर आना और "मै" तो हमेशा से तुम्हारा हूँ  और रहूँगा।शायद इस वजह से कि किसी जन्म में हम मिले थे कभी।