Saturday, June 25, 2011

कल रात तुमको सुना मैने

चाहता है ह्रदय फिर से तुम्हें पाने को और इस बार पाकर कभी ना खोने को।सुनना चाहता है तुम्हारी हर एक वो शिकायत जो तुम इक अनूठे अधिकार के साथ करती थी मुझसे।और मै तुम्हारी डाँट सुन कर भी हँस पड़ता था उस भोलेपन पर जो छलकता था तुम्हारी हर एक शब्द से।बड़े दिन हो गये,गये हुए तुमको पर अब तो दुनियादारी की बातें सुन-सुन कर थक से गये है मेरे कान।वो तो अब भी तुम्हारी अल्हड़पन वाली कोमल भावनाओं में भिंगोयी बातें सुनने को व्याकुल है।जिन बातों में बस अपनत्व और स्नेह की मिठास घुली होती थी।
शायद ये नहीं पता तुमको पर अब भी सुनता हूँ मै तुमको।जब-जब धड़कने धड़कती है तब-तब और जब जब साँसे चलती है तब-तब।हर उस लम्हें में तुम्हारी हँसी की खनखनाहट समा जाती है मेरे कानों में।तुमसे की गयी कुछ बातें जिनको मैने अपने मोबाईल में रिकार्ड कर लिया था आज भी आधी रात में एकाकी मन को तुम्हारे संग का एहसास दे जाते है।लगता है ऐसा कि तुमसे बात हो रही है,पर विचित्र स्थिती होती है मेरी उस समय तुम्हारे किसी बात का जवाब नहीं दे पाता मै बस मौन होकर सुनता रहता हूँ तुम्हें।जाना चाहता हूँ उस बीतें पल में और फिर पूछना चाहता हूँ तुमसे कुछ पर क्या करुँ खुद को हर बार अब अनुपस्थित पाता हूँ उस क्षण में जो बीत गया है।ना रहा वो प्यार अब और ना रहे वो प्यार करने वाले पर यादों में कैद तुम्हारी आवाज आज भी याद दिलाते है अपने प्यार के वादों और कसमों को।
आज रात की आधी पहर में जब सांसारिकता की सारी उलझनें भूल कर चैन से सोने गया बिस्तर पर तभी सहसा तुम्हारी यादों की हवायें आने लगी मेरी खिड़की से और शायद साथ में लाये कुछ बोल तुम्हारे टकराने लगे मेरी कानों से।मन में जगी इक ईच्छा ने आज सुनना चाहा तुमको और मै हेडफोन को अपने कानों में लगा सुनने लगा तुम्हारी बातों की रिकार्डींग।पता नहीं कितना पुराना था वो पर आज भी सुन कर लगता जैसे हो रही हो अब भी बात अपनी।हर बार की तरह मानों अपने प्रेम की शंका से उपजा मेरा प्रश्न पूछ बैठता तुमसे "कितना प्यार करती हो मुझसे?" और तुम बस इतना कहती "बहुत,बहुत बता नहीं सकती।"सुन कर आज बातें तुम्हारी एहसास हुआ कितने ख्वाब और भविष्य की कल्पनायें जो देखे थे हमने कल अब भी तो उतने ही अधूरे है जितने थे कल तक और अब तो शायद उन ख्वाबों के पूरे होने का ख्वाब भी नहीं आता मुझको।
हाँ तुम्हारी बातों ने तुम्हारे संग का एहसास दिया था मुझे पर इस एहसास में ना तो स्पर्श की कोई संवेदना थी और ना ही मेरे स्वयं का कोई सहयोग।बस इक मिथ्यास्पद गुजरे कल के कुछ बिखरे मोतियों को सहेज कर अपने प्रेम की माला बनाने की कोशिश कर रहा था मै और सहेज रहा था अपने आशिया के बिखरे तिनकों को जो मेरे दिल के घर को भी आज सूना सूना सा कर गये थे तुम्हारे जाने के बाद।सुनकर इक दिलासा जगा था दिल में कि चलो आज ना सही पर कभी तो हुआ था वो मेरा जिसकी चाहत ने न जाने कितनी तमन्नाएँ सौंपी थी मुझको और खुशनुमा,खुशहाल जिंदगी के कई ख्वाब दिखाये थे मुझे।जिसके साथ ने थामा था हाथ मेरा और मुझे भी सीखाया था प्यार करना पहली पहली बार मुझे।वो ही तो था पहला प्यार मेरा।
तुमको सुनते-सुनते न जाने कब नींद ने भर लिया अपने आगोश में मुझको और एकाएक इक झटके में जाग गया मै लगा कि मानों तुमने कहा हो "इतनी जल्दी क्यों सो गये तुम,देखो ना मै तो आज भी जागी हूँ रात-रात भर।"और मेरी आँखों से फिर दूर चला जाता वो रात जिनमें नींद ना था मेरी आँखों में बस रात थी और तुम्हारी बात।जी करता सुनता रहूँ हर रोज यूँही तुमको और इस झुठे दिलासे के संग देता रहूँ इक उम्मीद अपने कानों को भी कि हो ना हो इक रोज जरुर गूँजेंगे तुम्हारे कुछ शब्द इनमें जो अपनी प्यार की अधूरी कहानी को पूरा करेंगे और तुमको सुन लूँगा फिर आँखों को मूँद कर के शायद आखिरी बार।   

Saturday, June 18, 2011

प्रेमी चाँद की उलझन सा मेरा मन

हार कर आज आ बैठा मै अकेला छत पर।कितना पुकारा तुमको और तुम्हारे नाम को।अब तो शायद मेरे चारों ओर हर पल गूँजता रहता है नाम तुम्हारा प्रतिध्वनि बन कर।पर पता नहीं वो प्रतिध्वनि क्या तुमसे टकरा कर लौटती है या बस यूँ ही चली आती है मन को दिलासा दिलाने।आज मन में कई प्रश्न लिये और विरह की व्याकुलता से अधीर होकर विवश सा मन एकांत की तलाश में चाँदनी रात में छत पर ले आया मुझे।शायद आज पूछना था कई प्रश्न उसे चाँद और सितारों से या कही ढ़ूँढ़ता था अक्स तुम्हारा चाँद की प्रतिछाया में।क्या पता क्यों मन के सामने मजबूर ये प्रेमी अपनी प्रेम लगन के साथ आ बैठा आज छत पर अकेला।
आसमां में चाँद की चाँदनी से फुलझड़ियों सी जगमगाहट मानों मेरे मन में दुबक कर बैठे उस प्रेमी को प्रकाश का मार्ग दिखाती और ये दिलाशा भी देती की कही उस मार्ग में मिल जाये तुम्हारी प्रियतमा तुमको,जिसको ढ़ूँढ़ता आज तू यहाँ तक आया है।चाँद मुझे देख कर बादलों में छुपने लगा।शायद उसे अंदाजा था कि मेरे प्रश्नों के समक्ष वो भी इक प्रश्न सा बन जायेगा और उसके ह्रदय से भी उठने लगेंगे वो प्रश्न जो दबे-दबे से थे इन चाँदनी रातों में न जाने कब से।उसे एहसास होगा अपनी चाँदनी से विरह के हर उस क्षण का जब मै अपनी प्रियतमा के संग होता था और शायद मन ही मन जलता रहता था चाँद।उसकी जलन ही तो थी जो मुझे विरह के दिनों में बहुत खलती थी।तब वो मुस्कुराता था और मै अपने आँसू पोंछता बस एकटक देखता रहता उसको।पर आज वो भी तन्हा है और मै भी अकेला।
यह चाँदनी रात न जाने यादों के कितने बंद दरवाजे पर दस्तक दे गया।और यादों के किसी महल में आज भी सम्भाल कर रखी हुई तुम्हारी यादें झाँकने लगी बाहर।भूल गया मै अपना प्रश्न जो मुझे पूछना था आज चाँद से मै तो अतीत की गहराईयों में ही गोते लगाता रहा।तुम्हारे साथ का एहसास ही कुछ ऐसा खुशनुमा था कि उनके संग ही सारी उम्र गुजारने को जी करता था।एकाएक चाँद का मुझको निहारना मानों जगा गया मुझे यादों की उस स्वप्न निद्रा से और फिर मन में उभरने लगे कई प्रश्न जो चाँद से करने थे।पहले मैने ईशारा किया उसको और मुस्कुराते हुए एक ही बार में कहता चला गया अपने दिल की सारी बात।मैने कहाँ "ऐ चाँद! मै जानता हूँ तेरी चाँदनी पहुँचती होगी वहाँ भी जहाँ मेरी प्रियतमा शायद अभी भी यादों के संग खेल रही होगी और अपने सिरहाने को आँसूओं से भिगोकर रो रही होगी।।क्या तू मेरा एक पैगाम उस तक पहुँचा सकता है कि मै भी न जाने कब से राह देख रहा हूँ उस साथी का जिसके साथ के बिना जीवन बिल्कुल अधूरा सा लगता है।"
कुछ पल बिल्कुल शांत और स्थिर सा चाँद शायद कुछ सोचता रहा और फिर कहने लगा "हाँ मै तुम्हारे इस पैगाम को तुम्हारी प्रियतमा तक पहुँचाउँगा पर तेरे दिल के दर्द और विरह को कैसे बतलाउँगा?मानता हूँ मेरी चाँदनी है पहुँचती हर उस जगह पर जहाँ मै बस ठहर कर देखता हूँ,छू नहीं पाता।पर आज भी है दूर मुझसे मेरी चाँदनी।तू तो है बहुत दूर सनम से पर मै तो साथ रहकर भी,देखकर भी छू नहीं सकता उसको,प्यार नहीं कर सकता उसको।"चाँद की इस उलझन को सुन दिल में मानों भावनाओं का कोई ज्वार सा उठने लगा जो छुना चाहता था चाँद की चाँदनी को और सौंपना चाहता था चाँद को उसकी प्रियतमा।पता न था आज छत पे चाँद से पूछा गया मेरा प्रश्न खुद मुझे मौन कर जायेगा और अपनी प्रियतमा को भूल कर चाँद की चाँदनी को ही ढ़ूँढ़ता रह जाऊँगा आजीवन।
लगा ऐसा कि मेरी हथेली पर टपक कर आँसूओं की बूँद आ रही है जो शायद विरह के आशिक उस चाँद की है।जो देखता है,निहारता है अपनी प्रिया को पर दिल की उलझने दिल में ही सीमट कर रह जाती है।बेचारा शर्मीला कह भी नहीं पाता दिल की बात।अब पता चला उन दिनों जब मै साथ होता था अपनी जिन्दगी के क्यों जलता रहता था ये चाँद।शायद उस जलन में छुपी हुई थी प्यास अधूरी अपनी प्रियतमा को पाने की।दुनिया के सभी प्रेमियों को उनका प्यार सौंप कर भी आज ये चाँद और चाँदनी क्यों इतने दूर है खुद से।क्या दूर से ही प्रेम का अमिट स्पर्श छू जाता है उनके दिलों को और शायद ये दूरी करती है इस अनोखे प्यार को पूरी।

Sunday, June 12, 2011

कभी तुम मेरी इन धड़कनों की फिक्र भी कर लिया करो

याद आने लगा आज सदियों बाद फिर से वो दिन जब तुमसे नहीं मिला था,ना हुई थी बात अपनी,ना थी कोई जान पहचान तुमसे।पर ये दिल ना जाने क्यों तुमको अपना मान बैठा था।तुमसे जब पहली बार बात हुई थी अजीब हालत थी इन धड़कनों की।मुझसे ज्यादा अधीर तो बेचारे ये ही हो रहे थे।धड़कती रहती थी हर पल धड़कन रुकने का नाम ही नहीं लेती और  इक अद्भूत आनंद सा समाता जाता था मेरी इन धड़कनों में।जिन्दगी में पहली बार अधीरता भी कुछ ऐसा खुशनुमा माहौल पैदा कर रही थी जिसमें सब कुछ स्थिर था।बस दिल की धड़कन ही चल रही थी कभी हौले हौले तो कभी जोर से।
इन धड़कनों में कैद है आज भी उस पहले दिन से आखिरी दिन तक की हर एक तुम्हारी साँस जिनको मेरी साँसों ने बस महसूस किया था।इन धड़कनों की अधीरता तो बस बेबाक थी दौड़ते रहते थे मीलों तक और मै स्थिर बस स्थिर कुछ सोचता रहता।कई बार जब तुमसे प्यार का इजहार करना चाहा था मै,इन धड़कनों की वजह से ही रुक गया था।डरता था कही मेरी इन धड़कनों के प्रवाह का किसी को पता न चल जाये।ऐसे ही कही भी,कभी भी जब तुम्हारा नाम अनायास ही टकरा जाता था मेरे होंठों से फिर तो देखते ही बनती थी इन धड़कनों की बेचैनी।


एक बार तुमने रख दिया था हाथ मेरी इन धड़कनों पर और बेचारे गुमशुम से ये भी ना कह सके कि वो तो हर पल बस धड़कते है तुम्हारी खातिर।शायद उस पल धड़कनों का वेग जो तेज हो गया था वो तुम्हें कुछ कहना चाहते थे।पर निःशब्द भावों को नहीं समझ पायी तुम।क्यों तुम्हारे पास होने पर तेज हो जाते है ये और जब तुम्हारे जाने का समय आता है,तो फिर वही धक धक।पर शायद तुम्हें नहीं थी परवाह इन धड़कनों की जिनके धक धक की हर झंकार में बस तुम्हें पाने की इक अधूरी प्यास सी बजती थी,जिसे बस मै ही सुन पाता था,तुम नहीं।क्या तुम्हें महसूस नहीं होता था प्रवाह इन धड़कनों का जब तुम इनको छुती थी।
होंठों की सक्रियता और आँखों की बेचैनी तो समझ पाती थी तुम पर भावनाओं के उस दबे आशिक इन धड़कनों की फिक्र क्यों ना थी तुम्हें?ऐसा लगता ये धड़कन जल्दी जल्दी से किसी मँजिल तक पहुँचना चाहते है दौड़ कर पर मेरी विवशता के सामने वो भी विवश है।तुम्हारे ना होने पर थोड़े शांत रहते थे वो पर ज्योंही ख्यालों की जमीन पर उतर आती थी तुम धीरे से ये संवेदनाओं की अलौकिक रेस में जुट जाते थे।ख्वाब में आज भी तुम्हें सामने देख कर इन धड़कनों को शायद अब भी तुम्हारे आने का इंतजार है।
अब शायद सब कुछ रुक सा गया है तुम्हारे जाने के बाद पर आज भी न जाने किसकी खातिर ये धड़कते रहते है।शायद आज भी विश्वास है इन धड़कनों का तुम पर या इनका वो साझा जो इन्होनें तुम्हारी धड़कनों से किया था इन्हें अब भी देता है प्रवाह धड़कने का।शायद जिन्दगी के अंतिम क्षणों में जब साँस छुटने की बारी आये तब भी ये पागल धड़कन माँग ले कुछ वक्त और धड़कने को तुम्हारी खातिर।न जाने कैसा महसूस करते है ये बेवजह धड़क कर ये तो मुझे भी नहीं पता पर सच में इन धड़कनों की बदौलत ही आज भी तुम जिन्दा हो मेरी यादों की भूली बिसरी कहानी में।आज भी इन धड़कनों का फिक्र करने वाला शायद नहीं है कोई पर महसूस करने वाला तो है न।
तुमसे दूर होकर हर बार मैने महसूस किया है वो खालीपन जो तुम्हारे संग होने पर कितना भरा भरा सा होता था,जो मेरी साँसों को इक नयी जीवन उर्जा देता था।कई बार दुखाया दिल मैने तुम्हारा पर हर बार मेरा दिल समझा लेता था तुम्हारे दिल को और वो बंधन जो शायद अटूट है हमारे प्यार का जुड़ जाता था फिर से।पर इस बार तुम्हारे जाने के बाद क्या कहूँ बड़ी जोर जोर से धड़कते है ये धड़कन पर इन धड़कनों को कहाँ मालूम की कोई फिक्र ही नहीं उसे जिसकी खातिर बेवजह धड़के जा रहे है ये।कितना भी धड़क ले ये पर वो बिछुड़ा साथी अब कहाँ आने वाला जो शांत कर सके इन धड़कनों को और बस एक बार हाथ रख कर इनपर करा दे ये एहसास इनके फिक्र का।

Sunday, June 5, 2011

क्यूँ आकर फिर चली गई तुम?

सच में कुछ बदलाव तो था इस बार की अपनी मुलाकात में।इस बार वो इंतजार न था और ना था वो प्यार जो मै तुमसे करता था।शायद मुझे भी आभास हो रहा था इसका पर पता नहीं क्यों वो एहसास फिर धड़कनों में समा ही नहीं पा रहा था।वो खुमारी जो झलकती थी मेरी आँखों से और मेरे दिल के धड़कनों के संग धड़कती रहती थी और जो मुझे दिवाना बनाती थी तुम्हारे प्यार का।अब मेरे जेहनोदिल में उतरती ही न थी।कुछ ऊबा ऊबा सा मै तुम्हारे बातों का जवाब देता और तुमसे बात कर ऐसा लगता कि अपने प्यार पर कोई एहसान कर रहा हूँ।
फिर रात होती वैसी ही चाँदनी और दिलकश जैसा हुआ करती थी कभी जब प्यार के मदहोश पलों में खोये रहते थे हम।आँखों में ना नींद होता और ना अपनी बातें कभी खत्म होने का नाम लेती।पर इस बार तो नींद से मानों मुहब्बत हो गई थी मुझे तुम्हारे न होने के दिनों में।बड़ी जल्दी मै सो जाता और तुम बस इंतजार करती रहती।मै वही हूँ,तुम वही हो पर शायद प्यार का तजुर्बा जरा बदल गया है।वो प्यार जो कभी नई रंगत लेकर आया था मेरी जिंदगी में आज बोझ सा महसूस हो रहा था।और उस बोझ तले दबा दबा सा मेरा प्यार फिर जुदाई का डर दे देता था कभी कभी।


पता था मुझे एक दिन फिर तुम चली जाओगी मुझसे काफी दूर और फिर चाह कर भी बुला ना पाऊँगा तुम्हें।किस अधिकार से आवाज दूँगा तुम्हें।क्या कहूँगा आओ फिर से एक एहसान कर दो खुद पे।तुम मुझसे इतना प्यार करती थी पर शायद मै प्यार के काबिल ही ना था।कई बार तुमने पूछा "क्या कारण है इस बदलाव का" और मै बस यही कहता "सब तो वैसा ही है,कहाँ कुछ बदला" और कोशिश करता अपनी असमर्थता को छुपाने की।
तुमने कहाँ कि शायद अब तक तुम प्यार को जान ही नहीं पाये हो,आज तक जो था वो बस आकर्षण था प्यार नहीं।और मै मौन रह कर शायद हामी भरता तुम्हारे इस बात पर।कभी जब तुम ना होती तो सोचता क्या सच में आज तक मुझे प्यार नहीं हुआ,अब तक जो हुआ वो बस आकर्षण था।फिर सोचता आखिर प्यार कैसा होता है?याद आता वो पहला मुलाकात,वो पहली बार जो हुई थी तुमसे बात।कितना खुश था मै कदम जमीन पर पड़ते ही न थे।लगता था कि सारी दुनिया अब बस मेरे दामन में सीमट आयी है।शायद वो प्यार के कुछ पलों को जीने की ईच्छा दे गया था मुझे उस पहली बात में और प्यार के झोंको ने मुझे बहा लिया था खुद में।


तुम आई तो ऐसा लगा सदियों से थमी मेरी साँस मानों फिर से चलने लगी हो,ऐसा लगा फिर से जीने का एक बहाना मिल गया हो।जिसे ढ़ुँढ़ता ढ़ुँढ़ता कई बार मै मौत की गलियों से घुम आया था तुम्हारे न होने पर।रात फिर हसीन होने लगी और और तारों ने गुफ्तगु करना चाहा पर मेरे दिवानेपन को देख सभी शर्मा गये और चाँद भी अपनी चाँदनी की सारी छटाये हमारे प्यार पर फैलाता रहा।छत पर मै और तुम एक दूसरे के सामने निहारते रहे अपने प्यार को और यादों के हर एक बीते पन्नों को पलट पलट कर मै तुम्हें दिखाता रहा गुजरी मुहब्बत की बातें।
पर आज क्यूँ फिर चली गई तुम बहुत दूर।उतनी दूर जहाँ तक ना मेरी आवाज जाती है और ना मेरी नजर।ढ़ुँढ़ता रहा कई रात यूँही अकेला छत पर तुम्हें।चाँद से पूछता क्या देखा तुमने उसे,पर वो मौन रह कर शायद ये कहता वो तो आज भी तेरे साथ है पर "तू ही बदल गया है रे!" देख एक बार फिर प्यार की नजरों से वो तेरे सामने ही है।और मै शायद अपनी ही भूल के बदले फिर खो देता तुम्हें।फिर जिन्दगी मायूस होकर पूछती तुमसे "क्यूँ आकर फिर चली गई तुम" और मै बेबश होकर अब इंतजार भी ना कर पाता,क्योंकि खो दिया था मैने वो अधिकार भी इस बार।