Wednesday, July 27, 2011

तुमने क्या मुझे याद किया है अभी

अभी-अभी मिली है खबर मुझे तुम्हारे ना होने का और मेरा वजूद कुछ क्षण बिल्कुल सन्न सा हो गया है यह जानकर कि अब तक बस तुम्हारे बिना जी रहा था वो।कुछ अलग हो गया है उससे।शायद कोई वजनदार चीज थी वो।जो कभी कभी कोमल दिल पर भी आघात कर देती थी।पर अब उसके जाने के बाद सब कुछ बेहतर है।अब वो भावनाओं की जमीन नहीं है,जिनपर प्यार की खेती होती थी कभी।पर अब बस मन के विस्तृत आकाश में कुछ यादों के बादल बचे हुये है।जो मेरी छत से ज्यादा दूर नहीं है।कभी कभी तो हाथों से ही हिला देता हूँ उनको और बरस बरस कर वे भींगो देते है मुझे बेमौसम ही अक्सर।
इन आँखों का खोजना न जाने कब पूरा होगा जब आराम से इन्हें मूँद सो सकूँगा मै।कभी तुम्हारे घर के बहुत करीब जाकर लौट आते है ये।शायद शर्म आती हो इन्हें।कही कोई देख ना ले।पर जब कभी भी खोजते खोजते थक जाते है तुम्हें सागर के किनारे जाकर अपनी कुछ मोतियाँ सौंप आते है उसे तुम्हारी यादों के सीप का।और इनकी अभिव्यक्ति की सार्थकता तब होती है जब तुम्हारी खामोश तस्वीर से दो बात कर लेते है आँखों ही आँखों में।कही यह पूछते है शायद "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी"।
अक्सर रात को जब प्यास लगती है मुझे और पानी पीने के बाद सरकती है तब लगता है कि हो ना हो पर जरुर तुमने याद किया है अभी।साँसों का अटकना तेज हो जाता है और ऐसा लगता है साँसों के कई विभाजनों में विभक्त हो कर रह गया है तुम्हारे यादों का हर एक मंजर।और कभी कभी बड़ी देर तक आती रहती है हिचकी सी।उसी क्षण भेजता हूँ मै तुम्हारे पास एक सवाल "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी"।और तुम्हारे जवाब की राह देखते देखते कब नींद आ जाती है पता ही नहीं चलता।नींद टूटने पर फिर महसूस होती है वही प्यास जिसने मन में कोई प्रश्न लाया था और तुम याद आ गयी थी फिर आज की रात।
जल रही है मद्धम सी प्रकाश कोणे में।बहुत अँधेरी रात है और मै अकेला चला जा रहा हूँ कही।शायद दीप लिये तुम ही खड़ी हो राह में क्या?जो मेरा इंतजार कर रही है और मै तो रौशनी की चकाचौंध में तुम्हारा चेहरा ही नहीं देख पा रहा।पर बस तुम्हारी दो घूरती आँखें दिख जाती है मुझे।उन्हीं आँखों से होकर उतरना है तुम्हारी धड़कनों में और आज खुद कैद हो जाना है तुम्हारी कम्पनों में।कभी कभी धड़कना भी है संग उनके और कभी तड़पना भी है याद में तुम्हारे।वैसा कोई निश्चित समय नहीं है जो हमारे द्वारा रखा गया था याद करने का और ना ही सीमित ही है सीमाएँ उसकी।पर अब भी तुम्हारी प्यास कुछ सीमित है,जो बस तुम्हारे आने से पूरी हो सकेगी।
बल्ब जल रही है दिवार पे अड़ी और पँखा चल रहा है छत से टँगा।उसका हर बार घुमना मेरी परिक्रमा को नया आयाम देता है और उसे एकटक देखता देखता मै कुछ पल पिछे हो आता हूँ कभी कभी।कभी कभी यह अनुभव सुख देता है पर कभी खुद पे ही गुस्सा आता है मुझे अपने पिछे जाने पर और पुरानी आलमारी में बँद फटे हुये कपड़ों सी तुम्हारी यादों को बार बार सीने से।पर नाइट बल्ब की मद्धम प्रकाश फिर सूचित करती है शांत हो जाने को।देर रात तक जागने की यह आदत सही नहीं है शायद तुम्हारे जाने के बाद।करकती ठंड में भी कम्बल में दुबका मै बस यही सोचता रहता कि काश ऐसा होता आज का दिन कुछ इस तरह आता कि सारे छाये हुये कुहासों को चीर देता वो।और धुँधली होती तुम्हारी छवि फिर मेरे अंतरमन में बस जाती आजीवन के लिए।और जीवन का गुजारा इस ख्वाब के संग हो जाता कि यह सच होगा एक दिन।महकती रहती अब भी मेरी हथेली जैसे मानों तुम्हारे चंदन से तन का स्पर्श कर लिया हो उन्होनें।
एक कसमकस सी है दबी अब भी दिल में कि "तुमने क्या मुझे याद किया है अभी" या यूँही आती है हिचकीयाँ मुझे।तुम याद करती हो शायद तभी तो हम भी हँसते है कभी वरना उदासी भरी राहों में कभी मुस्कुराहट होती ही नहीं।कल मिला था मै तुमसे वही अपने छत की बालकोनी में खड़ी तुम किसी का इंतजार कर रही थी।क्या वह इंतजार मेरे लिए था या यूँही मै खुद को तुम्हारा प्यार समझ बैठा था।पर यह मेरा सपना नहीं है कि तुम अब नहीं हो।यह सच है जिसपर चलता चलता मै बहुत मजबूत हो गया हूँ।चट्टानों सा कठोर हो गया है मेरा वजूद पर अब भी पत्थरों में तरासता है वो तुम्हारे कुछ अनकहे अक्षर जो लब्जों पे आकर न जाने कब से रुके हुये है।कुछ अजीब से एहसासों से भरे है वे जो ना मुझे चैन से हँसने देते है और ना रोने बस मौन रहने को कहते है।

Sunday, July 17, 2011

महाकाल की प्रेम क्रीड़ा:-"सृष्टि और प्रलय"

जगत में काल का स्वरुप अचिन्तय है।जिसके वश में पूरा संसार हर पल सृष्टि से प्रारम्भ होकर प्रलय की ओर बढ़ता जाता है।सृष्टि दिवस के आरम्भ जैसा है और प्रलय अवसान सा।पर क्या?है कोई ऐसा जो इस काल के बंधन से मुक्त है।जिसका ना कोई आरम्भ है और ना कोई अंत।काल के भी काल का लेखा-जोखा रखने वाला एकमात्र महाकाल ही हो सकता है।जो इस काल के बंधन से परे है और अनंत भूत,वर्तमान और भविष्य के कालों की धुरी जिसकी आज्ञा के बिना असमर्थ है एक पल चलने को भी।शिव महाकाल है जो पुरुष तत्व का नेतृत्व करते है।देवों में श्रेष्ठ है,इसलिए महादेव है।
शिव विष से नहीं डरते पर भक्तों की अमृतमय स्नेहमाधुरी का रसपान कर मतवाले हो जाते है।विकराल अघोरी शिव के भयंकर स्वरुप के समक्ष भय भी भयभीत हो जाता है और प्रचण्डता भी काँपने लगती है।जगत का अहंकार चकनाचूर होने लगता है और अपने अस्तित्व के आधार शिव के समक्ष वह नतमस्तक हो जाता है।कठोरता के आवरण में जो वात्सल्य की छाया है वह बस शिव रुपी कल्पतरु ही प्रदान कर सकती है।महाकाल में ही महाकाली का भी स्वरुप निहीत है और महाकाली के स्नेह से ही महाकाल का प्रस्फुटन।शिव और शक्ति कभी भी एक दूसरे से पृथ्थक नहीं है।शिव है तो शक्ति है,पराक्रम है,साहस है और ओज है।वैसे ही शक्ति है तो जीव भी शिव के समान है।अर्थात दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना अधूरा लगता है।
जगत की सृष्टि हेतु काल का वह क्षण जब निराधार अनंत ब्रह्मांड की केंद्र पटल पर दो दिव्य शक्तियाँ एकाकार होती है,काल का प्रारम्भ कहलाता है।जब महाकाल,महाकाली के समक्ष होते है और आकर्षण बिन्दू चरम पर होता है।तब जगत में इंसानियत की नींव पड़ती है।जब दोनों के साँस टकराते है,तब संसार में प्राणश्वासों का प्रवाह होता है और जब महाकाली के अधरों पर महाकाल का प्रेमपूर्ण चुम्बन होता है,तो सृष्टि में प्रेम का स्फुटन प्रारम्भ होता है।जैसे-जैसे यह मिलन की आद्वितीय वेला अपने चरमोत्कर्ष पर होती है,वैसे-वैसे सृष्टि का सर्जन होता रहता है।
ठीक इसके विपरीत काल का वह क्षण जब महाकाल रुठ जाते है महाकाली से सृष्टि के प्रलय का प्रारम्भ होता है।प्राणवायु रुक जाती है,सब कुछ स्थिर हो जाता है और मोह का व्याप्क आवरण भंग होने लगता है।प्रेम अब घृणा का स्वरुप धर कर महाविनाश की ओर उद्धत होता है।और सृष्टि के प्रलय के साथ ही महाकाल और महाकाली का यह मिथ्या विरह दम्भ खत्म हो जाता है और फिर दोनों जुड़ जाते है सर्जन में।ना जाने यह कितनी बार होता है और कितनी बार आता है सृष्टि और प्रलय?महाकाल की प्रेम क्रीड़ा के बस दो आयाम होते है "सृष्टि और प्रलय" जो मनुष्य के अस्तित्व की कहानी रचते है।
शिव का स्वरुप निराला है और शिव का चिंतन ही ज्ञान।शिव के गले में लिपटा भुजंग और इनकी सवारी वृषभ दोनों एक दूसरे के शत्रु प्रजाति है,पर शिव के समक्ष प्रेमरत है सब।शिव का स्वरुप सामंजस्य और नेतृत्व की अनूठी मिशाल है।जटे में समाहित गंगा सबको पावन करने वाली है और प्यास बुझाने वाली है।मस्तक पर आद्य चंद्र शीतलता,कोमलता और स्नेह का परिचायक है।व्याघ्र चर्म का आसन यह संदेश प्रेषित करता है कि अपनी ताकत पे स्वयं का वश हो और उस पर स्वामी विराजमान हो सके।हाथ में विद्यमान त्रिशुल की तीन शंकुएँ सुख,दुख और संतुष्टि है।जो बताती है कि दुख पीड़ा का क्षण है पर सुख,दुख का ही एक स्वरुप।बस समझने की आवश्यक्ता है फिर तो सुख के मूल में भी छिपा दुख का आवरण निर्वस्त्र हो जायेगा और नंगी आँखों से भी दिखने लगेगा।सांसारिक प्राणी बस सुख को ही देख पाता है परन्तु वैरागी और संन्यासी वही है,जो सुख के मूल में छुपे दुख को देख सतर्क हो जाता है।त्रिशुल का तिसरा शंकु संतुष्टि है।यह वह स्थिती है जब मनुष्य को ज्ञात हो जाये कि सुख,दुख क्या है?अर्थात दोनों बस माया है।सुख भी सीमीत है और दुख उसकी परछायी।परन्तु अपने सामर्थय में ही आनंद की प्राप्ति संतुष्टि है।यही अंतःकरण की तृप्ति है।शिव के हाथों में डमरु और शिव का नटराज स्वरुप नृत्य और संगीत का उद्भव है।संगीत के सुरों का आरम्भ यही से है और शिव का तांडव ही ह्रदय तारों का कम्पण है।जिससे हर क्षण हमारी ध्मनियों में रक्त का प्रवाह होता रहता है।
शिव का रहन-सहन,वेश-भूषा बिल्कुल वैरागी है।पर दाता का सामर्थय रुप में नहीं है,वो तो कार्य में दृष्टिगोचर होता है।खुद भांग,धतूरा और गंगाजल से तृप्त होने वाले शिव स्वयं पर राख लपेटे हमारी किस्मत का लेखा-जोखा करते है।शिव "भोले-भाले" है।अर्थात प्रेम के समक्ष शिव का भोलापन मनोहारी है और घृणा के सामने भाले के जैसे विध्वंसकारी।हर समय ध्यान में मग्न शिव का स्वरुप जगत की सृष्टि हेतु हितकारी है।ध्यान वही है जहाँ ज्ञान है और जब ज्ञान है तो दान है।ये सब शिव के अनंत स्वरुप में दृष्टिगोचर है।वे आदिदेव है।अर्थात ना उनका कोई आरम्भ है और ना ही अंत।वो कब से है?शायद तब से जब काल का लेखा-जोखा भी ना हो।वही जगत का सार है।जिसके स्वरुप का मंथन ही सच्चा ज्ञान है और सत्य की पहचान है।
जीव की सार्थकता इसी में है,कि शिव रुपी अमृतवर्षा में वह पूर्णरुपेण भींग जाये।तन और मन को इस तरह भींगो ले कि हर अवसाद और क्लेश मिट जाये हर जन्म का।आध्यात्मिक एकाग्रता और व्याप्कता की नींव है शिव।शिव तथ्य है जिसका मूल है ज्ञान।तीव्र पवन के झोंको में समाहीत आवेग का हर एक प्रवाह बस शिव से सम्बंधित है।सृष्टि के हर पहलु का तार बस शिव रुपी युग्म से जुड़ा है।जहाँ शिव की अनंत सिंधु में ज्ञान और प्रेम का जल ही जल भरा हुआ है।शिव को समझना ही शिव को पूजने जैसा है।पुरुष रुपी शिव मातृत्व के अद्भूत वात्सल्य को समेटे है खुद में।जिसकी गोद में जीव को वह सुख प्राप्त होता है।जहाँ वह काल के हर एक बंधन से मुक्त होकर बस शिव में एकाकार होना चाहता है।जीव से शिव का वह मिलन कल्याणकारी है,जहाँ पशुपति शिव के समक्ष सम्पूर्ण जीवधारी नतमस्तक है और शिव ब्रह्मांड की तत्क्षण सर्जना को धारण किये हुये है। 

Wednesday, July 13, 2011

समर्पण और आस्था की शक्ति से मुक्कदर को पाओ

कुछ तो है ऐसा जो शाश्वत है।वही चिर काल से चिर काल तक है।वह सर्वशक्तिमान ईश्वर है।परन्तु उस आध्यात्मिक ईमारत की नींव भी बस आस्था की अमिट भावनाओं पे पड़ी है।आस्था के बिना ना तो सृष्टि के सृजनात्मक कार्यो की कल्पना की जा सकती है और ना ही सृष्टिकर्ता की।जिसकी आस्था की शक्ति जितनी ज्यादा है,ईश्वर उसके उतने ही करीब है।आस्था ही वह बीज है,जो समर्पण की भावना को अंकुरित करता है मानव ह्रदय के भीतर।कीचड़ में जैसे कमल खिलता है और अपनी सुंदरता से वह सबको मोहीत कर लेता है।वैसे ही ह्रदय में आया समर्पण का भाव हमें अपने मुक्कदर की उँचाईयों तक पहुँचाता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का मार्ग बताया है।कर्म ही श्रेष्ठ है यह अतिशयोक्ति नहीं है।पर यदि कर्म के साथ ही आस्था की शक्ति भी हो और परमसता के प्रति समर्पण का भाव भी हो तो मुक्कदर बनते देर नहीं लगती।समर्पण की उद्धात भावना के समक्ष कर्मयोग का पक्ष भी हल्का पड़ने लगता है।पर वह समर्पण ऐसा होना चाहिए जिसमें स्वयं का कोई वश ना हो।पूर्णतया खुद को सौंप दिया गया हो ईश्वर को।तब ऐसी परिस्थिती में आस्था की शक्ति और उद्धात समर्पण भाव के समक्ष भगवान अपने भक्त के लिए हर पल उपस्थित होता है।बस समर्पण का भाव पूर्णरुपेण समर्पित होना चाहिए।वहाँ किसी भी तर्क या शंका की आवश्यक्ता नहीं होनी चाहिए।
तर्क वहाँ होता है,जहाँ शंका होती है।और शंका वहाँ घर बनाता है,जहाँ आस्था की शक्ति कमजोर होती है।उद्धात समर्पण भाव के समक्ष तर्क खुद ब खुद नतमस्तक हो जाता है और जीव को शिव में एकाकार होते देर नहीं लगती।आस्था के पिछे लोभ का कोई साया नहीं होना चाहिए।किसी अमुक विषयवस्तु की प्राप्ति के लिए क्षणिक दिखाया गया समर्पण भाव कभी भी प्रगति के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक है।जरुरत है स्वयं के अस्तित्व के बारे में सोचने की और अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक अंतःजागृति लाने की।क्या हमारा जन्म बस इन क्षणभंगूर भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए हुआ है या भौतिकता से ऊपर की भी कोई आकांक्षा है हमारे अंतःकरण में।
टेक्नोलाजी और आधुनिकता के इस युग में लोग समझते है कि बस कुछ वेदमंत्रों को पढ़ कर और भगवान की स्तुति भर कर हम सफलता की हर एक ऊँचाईयों को पा लेंगे।पर यह सर्वथा गलत है।भगवान मंत्रों का या अपनी प्रशंसा का भूखा नहीं है।वो तो बस भावना का भूखा है,जो समर्पण भाव ही दिला सकते है।स्वयं के लिये और अपनों के सुख दुख में तो सभी रोते है,पर वह जो भगवान से मिलन की उत्कंठता में रोता है और विरह में नैनों को अश्रु से भिगोता है।वही अंत अंत तक अपनी मँजिल को पाता है।ह्रदय के भाव उमर कर जब आँखों से दो बूँद बन कर बहते है।तभी भगवान के समक्ष अपनी पूजा पूरी होती है।आस्था की शक्ति इतनी मजबूत होनी चाहिए कि प्रलय के क्षणों में भी मन में यह अडिग समर्पण हो कि अपना रखवाला तो अपने साथ है।फिर देखिये वो बस पल भर में आपके जिन्दगी के सारे तूफानों को समेट देगा और मँजिल तक जाने का मार्ग बड़ी सुगमता से दृष्टिगोचर होने लगेगा।
हमारे ईतिहास में कई ऐसे संत,महात्मा हुये है जिनके पास अक्षरों की थोड़ी सी भी समझ ना थी पर उनके पास समर्पण और आस्था की शक्ति का वो अद्भूत ज्ञान था,जो उन्हें हर पल ईश्वर का सान्निध्य देता रहा।हमारा शरीर हमारी पहचान नहीं है और ना ही हमारा वजूद आज जो है वही कल है।पर अतिसूक्ष्म आत्मा का वास ही हमारे अस्तित्व की सम्पूर्णता है।आत्मा ही सार्वभौमिक है,जो ईश्वर के द्वारा हमें दिया गया तेज है।और तन के अवसान के बाद पुनः ईश्वर को समर्पित होकर विलिन हो जाता है।मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह भविष्य के बारे में उतना ज्यादा गम्भीरता से नहीं सोचता।पर स्वयं के आध्यात्मिक परिचय के लिये उसे अपने अंतिम लक्ष्य को जानने की जरुरत है।जहाँ सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है और आत्मा भी निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है।यह वही समर्पण की शक्ति से सम्भव होता है,जो जीवन मृत्यु के बंधनों को काटकर जीव को शिव बना देता है।
कभी भी कोई कष्ट हो एक बार अपने अराध्य देव को पुकारो।बस पुकारने में भी उद्धात समर्पण की भावना नीहित होनी चाहिये।फिर देखिये समर्पण और आस्था की शक्ति से कैसे हम एक पल में मुक्कदर की ऊँचाईयों को पा लेते है।जीवन के हर रंग में रंग जाओ पर यह रंग बस तन तक ही सीमित होना चाहिए।अपने संस्कारों को कभी भी भूलना नहीं चाहिए और निरंतर भावनाओं को सम्प्रेषित करते रहना चाहिए।यही वह समर्पण है,जो कभी द्रौपदी की रक्षा करता है कान्हा बन कर तो कभी मीरा को कृष्ण प्रेम में बेसुध कर देता है।आज बस आस्था की थोड़ी बची हुई कुछ शक्ति ही है,जो घोर कलियुग में भी ईश्वर की कृपा मिल जाती है हमें।वरना आस्था के बिना पत्थर के मूर्ती का भी कोई अस्तित्व नहीं है और साक्षात ईश्वर भी पत्थर के मूर्ती सा ही है।

Wednesday, July 6, 2011

आज स्त्री बस वासना की पूर्ति भर है क्या?

अपनी अश्लील भावनाओं को प्रेम की पवित्रता का नाम देकर कोई अपनी अतृप्त वासना को छुपा नहीं सकता।वासना के गंदे कीड़े जब पुरुष मन की धरातल पर रेंगने लगते है तब वह बहसी,दरिंदा हो जाता है।अपनी सारी संवेदनाओं को दावँ पर रख बस जिस्म की प्यासी भूख को पूरा करने के लिए किसी हद तक गुजर जाता है।जब तक अपनी इच्छानुसार सब कुछ ठीक होता है तब तक वह प्रेम का पुजारी बना होता है।पर जैसे ही उसे विरोध का साया मिलता है वह दरिंदगी पर उतर जाता है।वासना के कुकृत्यों में लिप्त होकर जिस्मानी भूखों के लिए किसी नरभक्षी की तरह स्त्री के मान,मर्यादा और इज्जत को रौंदता रौंदता वह समाज,परिवार और संस्कारों को ताक पर रख बस वही करता है,जो करवाती है उसकी वासना।
हमारी संस्कृति में और हमारे धर्मग्रंथों में स्त्री को जो सम्मान मिला है।वो आज बस इतिहास के पन्नों में ही सीमट कर रह गया है।क्या स्त्री की संरचना बस पुरुष की काम और वासना पूर्ति के लिए हुई है।वो जननि है,वही हर संरचना की मूलभूत और आधारभूत सता है।पर क्या अब वही ममतामयी पवित्र स्त्री का आँचल बस वासनामय क्रीड़ा का काम स्थल बन गया है।आज समाज में स्त्री को बस वस्तु मात्र समझ कर निर्जीव वस्तुओं की तरह उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।क्या यही है वजूद आज के समाज में स्त्री का।स्त्री पुरुषों को जन्म देकर उनका पालन पोषण कर के उन्हें इसलिए इस लायक बना रही है कि कल किसी परायी स्त्री के अस्मत को लूटों।इन घिनौने कार्यों की पूर्ति के लिए स्त्री का ऊपयोग क्या उसे वासना का परिचायक भर नहीं बना दिया है आज के समाज में।
हद की सीमा तब पार हो जाती है जब बाप के उम्र का कोई पुरुष अपनी बेटी की उम्र की नवयौवना के साथ अपने हवस की पूर्ति करता है और अपनी मूँछों को तावँ देते हुये अपनी मर्दांगनी पर इठलाता है।लानत है ऐसी मर्दांगनी पर जो अपनी नपुंसकता को अपनी वासनामयी हवस से दूर करने की कोशिश करता है।क्यों आज भी आजादी के कई वर्षो बाद भी जब पूरा देश स्वतंत्र है।हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना जीवन यापन करने के लिए तत्पर है।पर जहाँ बात आती है स्त्री के सुरक्षा की सभी आँखे मूँद लेते है।क्या आज शक्ति रुपा स्त्री इतनी कमजोर हो गयी है जिसे सुरक्षा की जरुरत है।क्या उसका वजूद जंगल में रह रहे किसी कमजोर पशु सा हो गया है,जिसे हर पल यह डर बना रहता है कि कही उसका शिकार ना हो जाये।पर आज इस जंगलराज में शिकारी कौन है?वही पुरुष जिसको नियंत्रण नहीं है अपनी कामुक भावनाओं पर और यह भी पता नहीं है कि कब वो इंसान से हैवान बन जायेगा।
स्त्री की कुछ मजबूरियाँ है जिसने उसे बस वासना कि पूर्ति के लिए एक वस्तुमात्र बना दिया है।मजबूरीवश अपने ह्रदय पर पत्थर रख बेचती है अपने जिस्म को और निलाम करती है अपनी अस्मत को।पर वो पहलू अंधकारमय है।वह वासना का निमंत्रण नहीं है अवसान है।वह वासनामयी अग्न की वो लग्न है,जो बस वजूद तलाशती है अपनी पर वजूद पाकर भी खुद की नजरों में बहुत निचे तक गिर जाती है।स्त्री बस वासना नहीं है,वह तो सृष्टि है।सृष्टि के मूल कारण प्रेम की जन्मदात्री है।स्त्री से पुरुष का मिलन बस इक संयोग है,जो सृष्टि की संरचना हेतु आवश्यक है।पर वह वासनामयी सम्भोग नहीं है।
हवस के सातवें आसमां पर पुरुष खुद को सर्वशक्तिमान समझ लेता है पर अगले ही क्षण पिघल जाता है अहंकार उसका और फिर धूल में ही आ मिलता है उसका वजूद।वासना से सर्वकल्याण सम्भव नहीं है पर हाँ स्वयं का सर्वनाश निश्चित है।वासना की आग में जलता पुरुष ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे लौ पर मँडराता पतंगा लाख मना करने पर भी खुद की आहुति दे देता है।बस यहाँ भावना विपरीत होती है।वहाँ प्रेममयी आकर्षण अंत का कारक होता है और यहाँ वासनामयी हवस सर्वनाश निश्चित करता है।स्त्री को बस वासना की पूर्ति हेतु वस्तुमात्र समझना पुरुष की सबसे बड़ी पराजय है।क्योंकि ऐसा कर वो खुद के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा बैठता है अनजाने में।अपनी हवस की पूर्ति करते करते इक रोज खुद मौत के आगोश में समा जाता है।
जरुरी है नजरिया बदलने की।क्योंकि सारा फर्क बस सोच का है।समाज भी वही है,लोग भी वही है और हम भी वही है।पर यह जो वासना की दरिंदगी हममें समा गयी है वो हमारी ही अभद्र मानसिकता का परिचायक है।स्त्री सुख शैय्या है,आनंद का सागर है।बस पवित्र गंगा समझ कर गोते लगाने की जरुरत है ना कि उसकी पवित्रता को धूमिल करने की।जिस दिन स्त्री का सम्मान वापस मिल जायेगा उसे।उसी दिन जग के कल्याण का मार्ग भी ढ़ूँढ़ लेगा आज का पुरुष जो 21वीं सदी में पहुँच तो गया है पर आज भी कौरवों के दुशासन की तरह स्त्री के चिरहरण का कारक है। 

Saturday, June 25, 2011

कल रात तुमको सुना मैने

चाहता है ह्रदय फिर से तुम्हें पाने को और इस बार पाकर कभी ना खोने को।सुनना चाहता है तुम्हारी हर एक वो शिकायत जो तुम इक अनूठे अधिकार के साथ करती थी मुझसे।और मै तुम्हारी डाँट सुन कर भी हँस पड़ता था उस भोलेपन पर जो छलकता था तुम्हारी हर एक शब्द से।बड़े दिन हो गये,गये हुए तुमको पर अब तो दुनियादारी की बातें सुन-सुन कर थक से गये है मेरे कान।वो तो अब भी तुम्हारी अल्हड़पन वाली कोमल भावनाओं में भिंगोयी बातें सुनने को व्याकुल है।जिन बातों में बस अपनत्व और स्नेह की मिठास घुली होती थी।
शायद ये नहीं पता तुमको पर अब भी सुनता हूँ मै तुमको।जब-जब धड़कने धड़कती है तब-तब और जब जब साँसे चलती है तब-तब।हर उस लम्हें में तुम्हारी हँसी की खनखनाहट समा जाती है मेरे कानों में।तुमसे की गयी कुछ बातें जिनको मैने अपने मोबाईल में रिकार्ड कर लिया था आज भी आधी रात में एकाकी मन को तुम्हारे संग का एहसास दे जाते है।लगता है ऐसा कि तुमसे बात हो रही है,पर विचित्र स्थिती होती है मेरी उस समय तुम्हारे किसी बात का जवाब नहीं दे पाता मै बस मौन होकर सुनता रहता हूँ तुम्हें।जाना चाहता हूँ उस बीतें पल में और फिर पूछना चाहता हूँ तुमसे कुछ पर क्या करुँ खुद को हर बार अब अनुपस्थित पाता हूँ उस क्षण में जो बीत गया है।ना रहा वो प्यार अब और ना रहे वो प्यार करने वाले पर यादों में कैद तुम्हारी आवाज आज भी याद दिलाते है अपने प्यार के वादों और कसमों को।
आज रात की आधी पहर में जब सांसारिकता की सारी उलझनें भूल कर चैन से सोने गया बिस्तर पर तभी सहसा तुम्हारी यादों की हवायें आने लगी मेरी खिड़की से और शायद साथ में लाये कुछ बोल तुम्हारे टकराने लगे मेरी कानों से।मन में जगी इक ईच्छा ने आज सुनना चाहा तुमको और मै हेडफोन को अपने कानों में लगा सुनने लगा तुम्हारी बातों की रिकार्डींग।पता नहीं कितना पुराना था वो पर आज भी सुन कर लगता जैसे हो रही हो अब भी बात अपनी।हर बार की तरह मानों अपने प्रेम की शंका से उपजा मेरा प्रश्न पूछ बैठता तुमसे "कितना प्यार करती हो मुझसे?" और तुम बस इतना कहती "बहुत,बहुत बता नहीं सकती।"सुन कर आज बातें तुम्हारी एहसास हुआ कितने ख्वाब और भविष्य की कल्पनायें जो देखे थे हमने कल अब भी तो उतने ही अधूरे है जितने थे कल तक और अब तो शायद उन ख्वाबों के पूरे होने का ख्वाब भी नहीं आता मुझको।
हाँ तुम्हारी बातों ने तुम्हारे संग का एहसास दिया था मुझे पर इस एहसास में ना तो स्पर्श की कोई संवेदना थी और ना ही मेरे स्वयं का कोई सहयोग।बस इक मिथ्यास्पद गुजरे कल के कुछ बिखरे मोतियों को सहेज कर अपने प्रेम की माला बनाने की कोशिश कर रहा था मै और सहेज रहा था अपने आशिया के बिखरे तिनकों को जो मेरे दिल के घर को भी आज सूना सूना सा कर गये थे तुम्हारे जाने के बाद।सुनकर इक दिलासा जगा था दिल में कि चलो आज ना सही पर कभी तो हुआ था वो मेरा जिसकी चाहत ने न जाने कितनी तमन्नाएँ सौंपी थी मुझको और खुशनुमा,खुशहाल जिंदगी के कई ख्वाब दिखाये थे मुझे।जिसके साथ ने थामा था हाथ मेरा और मुझे भी सीखाया था प्यार करना पहली पहली बार मुझे।वो ही तो था पहला प्यार मेरा।
तुमको सुनते-सुनते न जाने कब नींद ने भर लिया अपने आगोश में मुझको और एकाएक इक झटके में जाग गया मै लगा कि मानों तुमने कहा हो "इतनी जल्दी क्यों सो गये तुम,देखो ना मै तो आज भी जागी हूँ रात-रात भर।"और मेरी आँखों से फिर दूर चला जाता वो रात जिनमें नींद ना था मेरी आँखों में बस रात थी और तुम्हारी बात।जी करता सुनता रहूँ हर रोज यूँही तुमको और इस झुठे दिलासे के संग देता रहूँ इक उम्मीद अपने कानों को भी कि हो ना हो इक रोज जरुर गूँजेंगे तुम्हारे कुछ शब्द इनमें जो अपनी प्यार की अधूरी कहानी को पूरा करेंगे और तुमको सुन लूँगा फिर आँखों को मूँद कर के शायद आखिरी बार।   

Saturday, June 18, 2011

प्रेमी चाँद की उलझन सा मेरा मन

हार कर आज आ बैठा मै अकेला छत पर।कितना पुकारा तुमको और तुम्हारे नाम को।अब तो शायद मेरे चारों ओर हर पल गूँजता रहता है नाम तुम्हारा प्रतिध्वनि बन कर।पर पता नहीं वो प्रतिध्वनि क्या तुमसे टकरा कर लौटती है या बस यूँ ही चली आती है मन को दिलासा दिलाने।आज मन में कई प्रश्न लिये और विरह की व्याकुलता से अधीर होकर विवश सा मन एकांत की तलाश में चाँदनी रात में छत पर ले आया मुझे।शायद आज पूछना था कई प्रश्न उसे चाँद और सितारों से या कही ढ़ूँढ़ता था अक्स तुम्हारा चाँद की प्रतिछाया में।क्या पता क्यों मन के सामने मजबूर ये प्रेमी अपनी प्रेम लगन के साथ आ बैठा आज छत पर अकेला।
आसमां में चाँद की चाँदनी से फुलझड़ियों सी जगमगाहट मानों मेरे मन में दुबक कर बैठे उस प्रेमी को प्रकाश का मार्ग दिखाती और ये दिलाशा भी देती की कही उस मार्ग में मिल जाये तुम्हारी प्रियतमा तुमको,जिसको ढ़ूँढ़ता आज तू यहाँ तक आया है।चाँद मुझे देख कर बादलों में छुपने लगा।शायद उसे अंदाजा था कि मेरे प्रश्नों के समक्ष वो भी इक प्रश्न सा बन जायेगा और उसके ह्रदय से भी उठने लगेंगे वो प्रश्न जो दबे-दबे से थे इन चाँदनी रातों में न जाने कब से।उसे एहसास होगा अपनी चाँदनी से विरह के हर उस क्षण का जब मै अपनी प्रियतमा के संग होता था और शायद मन ही मन जलता रहता था चाँद।उसकी जलन ही तो थी जो मुझे विरह के दिनों में बहुत खलती थी।तब वो मुस्कुराता था और मै अपने आँसू पोंछता बस एकटक देखता रहता उसको।पर आज वो भी तन्हा है और मै भी अकेला।
यह चाँदनी रात न जाने यादों के कितने बंद दरवाजे पर दस्तक दे गया।और यादों के किसी महल में आज भी सम्भाल कर रखी हुई तुम्हारी यादें झाँकने लगी बाहर।भूल गया मै अपना प्रश्न जो मुझे पूछना था आज चाँद से मै तो अतीत की गहराईयों में ही गोते लगाता रहा।तुम्हारे साथ का एहसास ही कुछ ऐसा खुशनुमा था कि उनके संग ही सारी उम्र गुजारने को जी करता था।एकाएक चाँद का मुझको निहारना मानों जगा गया मुझे यादों की उस स्वप्न निद्रा से और फिर मन में उभरने लगे कई प्रश्न जो चाँद से करने थे।पहले मैने ईशारा किया उसको और मुस्कुराते हुए एक ही बार में कहता चला गया अपने दिल की सारी बात।मैने कहाँ "ऐ चाँद! मै जानता हूँ तेरी चाँदनी पहुँचती होगी वहाँ भी जहाँ मेरी प्रियतमा शायद अभी भी यादों के संग खेल रही होगी और अपने सिरहाने को आँसूओं से भिगोकर रो रही होगी।।क्या तू मेरा एक पैगाम उस तक पहुँचा सकता है कि मै भी न जाने कब से राह देख रहा हूँ उस साथी का जिसके साथ के बिना जीवन बिल्कुल अधूरा सा लगता है।"
कुछ पल बिल्कुल शांत और स्थिर सा चाँद शायद कुछ सोचता रहा और फिर कहने लगा "हाँ मै तुम्हारे इस पैगाम को तुम्हारी प्रियतमा तक पहुँचाउँगा पर तेरे दिल के दर्द और विरह को कैसे बतलाउँगा?मानता हूँ मेरी चाँदनी है पहुँचती हर उस जगह पर जहाँ मै बस ठहर कर देखता हूँ,छू नहीं पाता।पर आज भी है दूर मुझसे मेरी चाँदनी।तू तो है बहुत दूर सनम से पर मै तो साथ रहकर भी,देखकर भी छू नहीं सकता उसको,प्यार नहीं कर सकता उसको।"चाँद की इस उलझन को सुन दिल में मानों भावनाओं का कोई ज्वार सा उठने लगा जो छुना चाहता था चाँद की चाँदनी को और सौंपना चाहता था चाँद को उसकी प्रियतमा।पता न था आज छत पे चाँद से पूछा गया मेरा प्रश्न खुद मुझे मौन कर जायेगा और अपनी प्रियतमा को भूल कर चाँद की चाँदनी को ही ढ़ूँढ़ता रह जाऊँगा आजीवन।
लगा ऐसा कि मेरी हथेली पर टपक कर आँसूओं की बूँद आ रही है जो शायद विरह के आशिक उस चाँद की है।जो देखता है,निहारता है अपनी प्रिया को पर दिल की उलझने दिल में ही सीमट कर रह जाती है।बेचारा शर्मीला कह भी नहीं पाता दिल की बात।अब पता चला उन दिनों जब मै साथ होता था अपनी जिन्दगी के क्यों जलता रहता था ये चाँद।शायद उस जलन में छुपी हुई थी प्यास अधूरी अपनी प्रियतमा को पाने की।दुनिया के सभी प्रेमियों को उनका प्यार सौंप कर भी आज ये चाँद और चाँदनी क्यों इतने दूर है खुद से।क्या दूर से ही प्रेम का अमिट स्पर्श छू जाता है उनके दिलों को और शायद ये दूरी करती है इस अनोखे प्यार को पूरी।

Sunday, June 12, 2011

कभी तुम मेरी इन धड़कनों की फिक्र भी कर लिया करो

याद आने लगा आज सदियों बाद फिर से वो दिन जब तुमसे नहीं मिला था,ना हुई थी बात अपनी,ना थी कोई जान पहचान तुमसे।पर ये दिल ना जाने क्यों तुमको अपना मान बैठा था।तुमसे जब पहली बार बात हुई थी अजीब हालत थी इन धड़कनों की।मुझसे ज्यादा अधीर तो बेचारे ये ही हो रहे थे।धड़कती रहती थी हर पल धड़कन रुकने का नाम ही नहीं लेती और  इक अद्भूत आनंद सा समाता जाता था मेरी इन धड़कनों में।जिन्दगी में पहली बार अधीरता भी कुछ ऐसा खुशनुमा माहौल पैदा कर रही थी जिसमें सब कुछ स्थिर था।बस दिल की धड़कन ही चल रही थी कभी हौले हौले तो कभी जोर से।
इन धड़कनों में कैद है आज भी उस पहले दिन से आखिरी दिन तक की हर एक तुम्हारी साँस जिनको मेरी साँसों ने बस महसूस किया था।इन धड़कनों की अधीरता तो बस बेबाक थी दौड़ते रहते थे मीलों तक और मै स्थिर बस स्थिर कुछ सोचता रहता।कई बार जब तुमसे प्यार का इजहार करना चाहा था मै,इन धड़कनों की वजह से ही रुक गया था।डरता था कही मेरी इन धड़कनों के प्रवाह का किसी को पता न चल जाये।ऐसे ही कही भी,कभी भी जब तुम्हारा नाम अनायास ही टकरा जाता था मेरे होंठों से फिर तो देखते ही बनती थी इन धड़कनों की बेचैनी।


एक बार तुमने रख दिया था हाथ मेरी इन धड़कनों पर और बेचारे गुमशुम से ये भी ना कह सके कि वो तो हर पल बस धड़कते है तुम्हारी खातिर।शायद उस पल धड़कनों का वेग जो तेज हो गया था वो तुम्हें कुछ कहना चाहते थे।पर निःशब्द भावों को नहीं समझ पायी तुम।क्यों तुम्हारे पास होने पर तेज हो जाते है ये और जब तुम्हारे जाने का समय आता है,तो फिर वही धक धक।पर शायद तुम्हें नहीं थी परवाह इन धड़कनों की जिनके धक धक की हर झंकार में बस तुम्हें पाने की इक अधूरी प्यास सी बजती थी,जिसे बस मै ही सुन पाता था,तुम नहीं।क्या तुम्हें महसूस नहीं होता था प्रवाह इन धड़कनों का जब तुम इनको छुती थी।
होंठों की सक्रियता और आँखों की बेचैनी तो समझ पाती थी तुम पर भावनाओं के उस दबे आशिक इन धड़कनों की फिक्र क्यों ना थी तुम्हें?ऐसा लगता ये धड़कन जल्दी जल्दी से किसी मँजिल तक पहुँचना चाहते है दौड़ कर पर मेरी विवशता के सामने वो भी विवश है।तुम्हारे ना होने पर थोड़े शांत रहते थे वो पर ज्योंही ख्यालों की जमीन पर उतर आती थी तुम धीरे से ये संवेदनाओं की अलौकिक रेस में जुट जाते थे।ख्वाब में आज भी तुम्हें सामने देख कर इन धड़कनों को शायद अब भी तुम्हारे आने का इंतजार है।
अब शायद सब कुछ रुक सा गया है तुम्हारे जाने के बाद पर आज भी न जाने किसकी खातिर ये धड़कते रहते है।शायद आज भी विश्वास है इन धड़कनों का तुम पर या इनका वो साझा जो इन्होनें तुम्हारी धड़कनों से किया था इन्हें अब भी देता है प्रवाह धड़कने का।शायद जिन्दगी के अंतिम क्षणों में जब साँस छुटने की बारी आये तब भी ये पागल धड़कन माँग ले कुछ वक्त और धड़कने को तुम्हारी खातिर।न जाने कैसा महसूस करते है ये बेवजह धड़क कर ये तो मुझे भी नहीं पता पर सच में इन धड़कनों की बदौलत ही आज भी तुम जिन्दा हो मेरी यादों की भूली बिसरी कहानी में।आज भी इन धड़कनों का फिक्र करने वाला शायद नहीं है कोई पर महसूस करने वाला तो है न।
तुमसे दूर होकर हर बार मैने महसूस किया है वो खालीपन जो तुम्हारे संग होने पर कितना भरा भरा सा होता था,जो मेरी साँसों को इक नयी जीवन उर्जा देता था।कई बार दुखाया दिल मैने तुम्हारा पर हर बार मेरा दिल समझा लेता था तुम्हारे दिल को और वो बंधन जो शायद अटूट है हमारे प्यार का जुड़ जाता था फिर से।पर इस बार तुम्हारे जाने के बाद क्या कहूँ बड़ी जोर जोर से धड़कते है ये धड़कन पर इन धड़कनों को कहाँ मालूम की कोई फिक्र ही नहीं उसे जिसकी खातिर बेवजह धड़के जा रहे है ये।कितना भी धड़क ले ये पर वो बिछुड़ा साथी अब कहाँ आने वाला जो शांत कर सके इन धड़कनों को और बस एक बार हाथ रख कर इनपर करा दे ये एहसास इनके फिक्र का।

Sunday, June 5, 2011

क्यूँ आकर फिर चली गई तुम?

सच में कुछ बदलाव तो था इस बार की अपनी मुलाकात में।इस बार वो इंतजार न था और ना था वो प्यार जो मै तुमसे करता था।शायद मुझे भी आभास हो रहा था इसका पर पता नहीं क्यों वो एहसास फिर धड़कनों में समा ही नहीं पा रहा था।वो खुमारी जो झलकती थी मेरी आँखों से और मेरे दिल के धड़कनों के संग धड़कती रहती थी और जो मुझे दिवाना बनाती थी तुम्हारे प्यार का।अब मेरे जेहनोदिल में उतरती ही न थी।कुछ ऊबा ऊबा सा मै तुम्हारे बातों का जवाब देता और तुमसे बात कर ऐसा लगता कि अपने प्यार पर कोई एहसान कर रहा हूँ।
फिर रात होती वैसी ही चाँदनी और दिलकश जैसा हुआ करती थी कभी जब प्यार के मदहोश पलों में खोये रहते थे हम।आँखों में ना नींद होता और ना अपनी बातें कभी खत्म होने का नाम लेती।पर इस बार तो नींद से मानों मुहब्बत हो गई थी मुझे तुम्हारे न होने के दिनों में।बड़ी जल्दी मै सो जाता और तुम बस इंतजार करती रहती।मै वही हूँ,तुम वही हो पर शायद प्यार का तजुर्बा जरा बदल गया है।वो प्यार जो कभी नई रंगत लेकर आया था मेरी जिंदगी में आज बोझ सा महसूस हो रहा था।और उस बोझ तले दबा दबा सा मेरा प्यार फिर जुदाई का डर दे देता था कभी कभी।


पता था मुझे एक दिन फिर तुम चली जाओगी मुझसे काफी दूर और फिर चाह कर भी बुला ना पाऊँगा तुम्हें।किस अधिकार से आवाज दूँगा तुम्हें।क्या कहूँगा आओ फिर से एक एहसान कर दो खुद पे।तुम मुझसे इतना प्यार करती थी पर शायद मै प्यार के काबिल ही ना था।कई बार तुमने पूछा "क्या कारण है इस बदलाव का" और मै बस यही कहता "सब तो वैसा ही है,कहाँ कुछ बदला" और कोशिश करता अपनी असमर्थता को छुपाने की।
तुमने कहाँ कि शायद अब तक तुम प्यार को जान ही नहीं पाये हो,आज तक जो था वो बस आकर्षण था प्यार नहीं।और मै मौन रह कर शायद हामी भरता तुम्हारे इस बात पर।कभी जब तुम ना होती तो सोचता क्या सच में आज तक मुझे प्यार नहीं हुआ,अब तक जो हुआ वो बस आकर्षण था।फिर सोचता आखिर प्यार कैसा होता है?याद आता वो पहला मुलाकात,वो पहली बार जो हुई थी तुमसे बात।कितना खुश था मै कदम जमीन पर पड़ते ही न थे।लगता था कि सारी दुनिया अब बस मेरे दामन में सीमट आयी है।शायद वो प्यार के कुछ पलों को जीने की ईच्छा दे गया था मुझे उस पहली बात में और प्यार के झोंको ने मुझे बहा लिया था खुद में।


तुम आई तो ऐसा लगा सदियों से थमी मेरी साँस मानों फिर से चलने लगी हो,ऐसा लगा फिर से जीने का एक बहाना मिल गया हो।जिसे ढ़ुँढ़ता ढ़ुँढ़ता कई बार मै मौत की गलियों से घुम आया था तुम्हारे न होने पर।रात फिर हसीन होने लगी और और तारों ने गुफ्तगु करना चाहा पर मेरे दिवानेपन को देख सभी शर्मा गये और चाँद भी अपनी चाँदनी की सारी छटाये हमारे प्यार पर फैलाता रहा।छत पर मै और तुम एक दूसरे के सामने निहारते रहे अपने प्यार को और यादों के हर एक बीते पन्नों को पलट पलट कर मै तुम्हें दिखाता रहा गुजरी मुहब्बत की बातें।
पर आज क्यूँ फिर चली गई तुम बहुत दूर।उतनी दूर जहाँ तक ना मेरी आवाज जाती है और ना मेरी नजर।ढ़ुँढ़ता रहा कई रात यूँही अकेला छत पर तुम्हें।चाँद से पूछता क्या देखा तुमने उसे,पर वो मौन रह कर शायद ये कहता वो तो आज भी तेरे साथ है पर "तू ही बदल गया है रे!" देख एक बार फिर प्यार की नजरों से वो तेरे सामने ही है।और मै शायद अपनी ही भूल के बदले फिर खो देता तुम्हें।फिर जिन्दगी मायूस होकर पूछती तुमसे "क्यूँ आकर फिर चली गई तुम" और मै बेबश होकर अब इंतजार भी ना कर पाता,क्योंकि खो दिया था मैने वो अधिकार भी इस बार।

Monday, May 30, 2011

जन्म दर जन्म भूल गया सब कुछ

विराट अथाह समुद्र के बीच में खड़ा मै।जहाँ चारों ओर बस दृश्य होता जलमंडल का कभी ना अंत होने वाला छोड़।पवन अपने वेग में समेट कर लाती संदेश इस जलमग्नता का और प्राणश्वासों की विलुप्तता का।अंधकार का सम्राज्य और भी भयावह बना देता इस सम्पूर्ण परिदृश्य को और इक लकड़ी के छोटे नामात्र टुकड़े पर अड़ा मेरा अस्तित्व मुझे मेरी तुच्छता का बोध कराता रहता।जीवन पथ का यह मार्ग कभी संकीर्ण कंदराओं से गुजरता तो कभी विस्तृत जलमंडल से।जहाँ मार्ग में आलोकित करता मेरा राह एक प्रकाश पुन्ज चाँद सा हर दम मेरे साथ चलता।एक क्षण को बुझ जाता हर दीप मन का पर ये चाँद प्रतिक्षण मेरे साथ होता।
भूलने की ये कहानी मुझे समझ ना आती और भूलता रहता जन्म दर जन्म अपनी सारी जन्मगाथाएँ।भूल जाता सारे रिश्ते जिन्हें सहेजते अपनी कितनी जन्मों की भावनाओं को दावँ पे रखता था मै और अपना सर्वस्व समर्पित करने के बाद भी कुछ और देने की इच्छा रहती थी मन में।उस ममता को भी भूल गया और उस ममतामयी काया को भी।जन्म दर जन्म ममतामयी काया का स्वरुप बदलता रहा और मै भूल गया अपनी बीती सभी जननियों को भी।


जीवन का सत्य जन्म और मृत्यु,जन्म में आनंद की महक और मृत्यु में जुदाई की कसक।इन सभी सांसारिक लक्षणों से मुक्त होकर मै आज आया हूँ  यहाँ।जानता हूँ कोई नहीं है यहाँ जो मेरा है,पता है कुछ नहीं है अपना जिसपर अधिकार जता सकता हूँ।पर ये तो बता दो मेरे परमपिता!"तुम कहाँ हो?"तुममे मिलना ही मेरी सम्पूर्णता है।तुम्हारे दर्शन ही मेरे नैनों की नैन पुतलियों की रौशनी है,जिनमें रिक्त है अब तक तुम्हारी प्रतिमूर्ति की छाया।अब तक बस बदलता रहा स्वरुप तुम्हारे कांतिमय काया का पर प्रभू आज इन नैनों की जिद के आगे विवश हूँ।वो तो बस तुम्हारे प्रकाश पुन्ज के प्रकाश से ही प्रकाशित होंगे वरना इन आँखों की रौशनी तो खो ही जायेगी।
नभ की ओर हाथों को फैलाकर,चारों दिशाओं को एक संग आधार बनाकर आज करना है तुम्हारा आह्वाहन।अंतर्मन से पुकारना है तुम्हें और लहु की हर बूँद का कतरा कतरा भी न्योछावर कर आज तुम्हारे वास्ते मर मिटना है।पता नहीं ये मेरी भक्ति है या समर्पण की शक्ति है पर ऐसा लगता है आओगे तुम।तुम्हारे आने पर नभ से सुगंधित पुष्पों की वृष्टि होगी।धरा खुशहाल होकर स्वागत गीत गायेगा और जलमंडल अपने खारे जल को विशुद्ध पावन बना कर तुम्हारे पावँ पखारने निकल पड़ेगा।सभी जीव,प्राणि तुम्हारे आगमन की उत्सुकता से ऐसा कोलाहल मचायेंगे जो एक संगीतमय वातावरण निर्मित करेगा।मेरा अस्तित्व जरा तुच्छ सा होगा इन विराट ब्रह्मांड के नायकों के समक्ष पर प्रभू जिसके दर्शन को सब नैन बिछायेंगे उसको तो मै अपने मन के मंदिर में ही देख लूँगा आँखें बंद कर।जिससे मिलने सम्पूर्ण संसार आगे बढ़ेगा उसे तो मै बस मन के नगर में एक कदम उतर कर ही पा लूँगा।
वास्तविक जीवन के वास्तविक परिचायक मेरे प्रभू तुम चिर काल से चिर काल तक मेरे पालक और संरक्षक हो।माँ-बाप,भाई-बहन अन्य सारे रिश्ते बस क्षणिक है,जिनके अस्तित्व को ताउम्र महसूस कर सकना संभव है पर जन्म दर जन्म याद रखना असम्भव।जन्म दर जन्म भूलता गया हर बात जिस बात में मै था,तुम थे और शायद कभी हम सब थे।भूल गया वो जगह जहाँ कभी मै और तुम हँसते थे,रोते थे और कई बार जागते और फिर सोते थे।बस याद रहा वो राह और राह में आलोकित वो प्रकाश पुन्ज,जो शायद तुम ही हो मेरे प्रभू।

Thursday, May 26, 2011

नई जिन्दगी की एक नयी सुबह

शंकाओं से भरी हुई वो सुबह,अनिश्चिताओं के हजारों किरणों को खुद में समेटे जगाता रहा मुझे।पुरानी जिन्दगी यादों के पन्नों में सीमट गयी और नयी जिन्दगी भविष्य के सपनों को कही दूर मुझे दिखाती दे गयी एक भोर।इस सुबह कोई ना था।सब अजनबी थे मेरे आसपास।बस अकेला मै और मेरी बदली हुई नयी जिन्दगी,जिसमें आशाओं के बादल हल्के हल्के घिर जाते थे कभी और एक नयी शुरुआत का आस्वासन दे जाते थे मुझे।कभी कोई शोर कानों से टकरा जाता और कभी कोई विचार मोड़ देता राह मेरी जिन्दगी का।
सोचता मै बैठा बैठा क्या संघर्ष की शुरुआत होने वाली है या संघर्ष का ही दूसरा स्वरुप है यह आया हुआ सुबह।इस भोर में बहुत कुछ नयापन है,उजड़े हुये स्वप्न घरौंदे है जिन्हें चुन चुन कर फिर से बनाना है मुझे अपने सुनहरे भविष्य का कल।लड़ना है मुझे रिश्तों की डोर के हर एक उस एहसास से जो कमजोर करता है मुझे।समझना है नये रंग और रुप को और खुद को भी रंग लेना है उस रंग में।देखना है आकाश की उन ऊँचाईयों को जो मेरे घर के छत से काफी दूर है।पाना है हर उस मुकाम को जो इस नयी दुनिया में बड़ा दिखायेंगे मुझे।


कल्पनाओं की मेरी नगरी से बिल्कुल अलग सा है यह नया संसार।भावनाओं की कमी और इंसानियत का थोड़ा अभाव है यहाँ।संवेदनाओं को रौंद कर ही शायद मिलती है यहाँ पहचान और पैसों के बिस्तर पर ही शायद पाते है सभी सुकुन यहाँ।कभी सोचता शायद ये दुनिया मेरे लिए नहीं,मेरे लिए तो वो पुरानी दुनिया ही भली थी।पर फिर जब पिछे मुड़ कर देखता तो दूर दूर तक बस खाली खाली सा नजर आता।शायद छुट गया काफी पिछे वो बचपन का जमाना कही किसी स्मृति में।अब तो एक जिम्मेवार व्यक्ति बन कर नई दुनिया की नागरिकता हासिल करनी है मुझे।
सारे शौक और मेरे सारे हसरत दम तोड़ते रहे,चिल्लाते रहे पर जिन्दगी के भागदौड़ में भागता भागता मै शायद बड़ी दूर निकल आया था।बस एक बार भी पिछे मुड़ कर देखने की फुरसत कहाँ थी अब तो।अब ना थी वो शाम की तन्हाईयाँ जिसमें चुपचाप एकांत में चलता मै मीलों की दूरी तय करता।खुद से बातें करता और अपने दिल की भी सुनता।ना था वो सुनहरा सुबह जब सबसे पहले उठकर सूर्यनमस्कार करता और फिर योग और ध्यान।अब तो बस मेरा वजूद किसी का गुलाम था।पहले तो एक दिन में कई काम होते थे मेरे,पर अब मेरा पूरा दिन बस किसी एक काम को ही करते करते गुजर जाता।


हाँ,एक बात थी इस नयी जिंदगी में बड़ी चैन की नींद नसीब होती थी पर यहाँ भी सपने तोड़ देते थे मेरी खुशियाँ और मेरी जिम्मेवारी फिर जगा देती थी मुझे।दुनिया तो था कहने को नया,पर जिन्दगी में कुछ भी ना था नया।बस रेस जो कभी खत्म ही नहीं होती।रोज सुबह,रोज शाम और फिर वही बेचैन की नींद जो चैन सी लगती।कभी ये जिंदगी ना देती समय सोचने को कुछ बस कहती बढ़ते जाओ।
एक एक कर टुट गया हर ख्वाब,दफन हो गयी मेरी सारी ख्वाहिशे और जलता रहा मेरे सपनों का वो घर जिसकी नींव मैने चैन के उस हर रात में रखी थी जब कल्पनाओं का आकाश ही मेरा छत था और मेरे विचार उनपे टिमटिमाते तारों से थे जो मेरी जिन्दगी के हर रात को जगमग जगमग करते थे।पर शायद इस नयी दुनिया में महत्व नहीं है मेरे विचारों और मेरी कल्पनाकाश का।यहाँ शायद मेरी भावनाओं की भी कद्र नहीं है जो अक्सर मुझे बहुत ही बड़ा स्थान दिलाते थे कभी पर अब यही मेरी कमजोरी से बन गये है।मेरी नयी जिन्दगी की एक नयी सुबह का यह सुबह शायद पहला और आखिरी ही है मेरे लिए।

Monday, May 16, 2011

"वक्त ने मुझे बड़ा बना दिया-पापा"

अपने सभी अरमानों को दबा लिया दिल में ही कही और किसी से ना कुछ कहा।कई ख्बाव जो पलते थे आपकी आँखों में दिन-रात उसे आपने मेरी आँखों को सौंप दिया।क्यों किया ऐसा आपने,बस मेरे लिए ना पापा!आप हरदम बस सोचते रहे हमारी खुशी के लिए और मै कुछ ना समझा आपके प्यार को।वो आपका प्यार ही तो था जो मुझसे बार-बार बातें कर मेरे बारे में पूछना और कुछ ज्यादा ना कह पाना।मेरे उज्जवल भविष्य के लिए दिन रात यहाँ से वहाँ आपका भाग-दौड़,कुछ ना समझ पाया मै।
बचपन से किताबों में पढ़ता आया माँ की ममता के बारे में।माँ की ममतामयी छाया में भूल गया शायद कि एक ऐसा दिल भी है,जो बहुत प्यार करता है मुझसे।आज जीवन के मायने बदल रहे है शायद अब मै बड़ा हो गया हूँ।उतना बड़ा की अब अपने जीवन के बारे में गम्भीरता से सोच सकूँ।मेरे लिए जीवन के कई रुप है परिवार,दोस्त,प्यार और कैरियर बहुत कुछ है।पर एक शख्स जिसकी हर आहट में मेरे कदमों का ही चिन्ह झलक जाता है,वो शख्स बस आप है पापा।जो बस मेरे लिए सोचते है,मुझसे बहुत प्यार करते है।पर शायद मै आपके इस प्यार की छतरी ओढ़े खुद को न जाने क्या समझ बैठता हूँ।अपने अस्तित्व की पहचान को ही गुमनाम कर बैठता हूँ।
आपका बार-बार कहना बेटा इस बार घर आना ऐसा प्रोग्राम है और मै तो अकड़ कर ही रह जाता।शायद क्या सोच लेता मै।समझ ना पाता क्यों जब बस एक हफ्ते ही हुये होते मेरे घर से आये आप मुझे फिर उसी उत्साह के साथ बुलाते।और इस अनोखे प्यार को तो मै अपनी सफलता का अवरोध मान लेता।शायद उस रोज जब मै सफलता की ऊँचाईयों को छू रहा होउँगा,यह निमंत्रण और प्यार फिर से पाने की इक अधूरी ख्वाहिश दिल में जगेगी।पर शायद समय कुछ बदल सा गया होगा उस वक्त।


कहा गया है कि "चीजों की कीमत मिलने से पहले और इंसान की कीमत खोने के बाद पता चलती है"।आँसू भी बरबस आँखों में तब आते है,जब आँसू पोंछने वाला बड़ी दूर जा चुका होता है।इंसान सोचता है समय को पकड़ लूँ अपने तो संग है ही पर शायद ये समय ही सभी अपनों को भी किसी भोर के सपने सा बना देता है।जिसके टुटने पर दिल को बहुत दुख होता है,क्योंकि भोर का सपना शायद भविष्य का सच होने वाला होता है।नहीं पता मुझे ये क्या है जिसके कारण जब आप सामने होते है तो कुछ ना कह पाता हूँ और ना दिखला पाता हूँ।पर एहसास बाद में कचोटने लगते है मन को और ऐसे ही जब बिल्कुल अकेला हो जाता हूँ,तो अपने उस परिवार की याद आ जाती है,जहाँ सब को मेरी चिंता रहती है,बस मेरी।
पूरी दुनिया में शायद बहुत कम लोग ही ऐसे है जो सोचते है मेरे बारे में।मेरी खुशियों में मेरे साथ होते है और मेरे दुख में छुप-छुप कर आँसू बहाते है।शायद समय उस दहलीज पे भी लाकर खड़ा कर दे एक दिन जब कोई गुमान ना हो खुद पे।वो जिद ना हो,वो चाहत ना हो और ना हो वो फरमाईश।जो मै अक्सर करता था आपसे और आप झट से पुरा कर देते थे उसे।कभी ये ना सोचते थे क्या गलत है और क्या सही,बस मेरे लाडले की खुशी है,सब ठीक है।


कभी कभी जो आपका दिल दुखा देता हूँ पापा बहुत अच्छा लगता है।खुश होता हूँ मै ये सोचकर कि आपको तो मेरी भावनाओं की कद्र ही नहीं।पर अब तक असमर्थ हूँ आपके भावनाओं को देख पाने में जिसमें कुछ नहीं है,कोई चाहत नहीं जीवन के उड़ानों का उसमें तो बस मेरी तस्वीर है बचपन से अब तक की।यादें है वो जो शायद अब याद नहीं आते।मेरी हर एक फरमाईश और ख्वाहिश से भरी हुई है आपकी भावनायें।जिसे मैने अपने जीवन में स्नेह का अभाव मान लिया था,वो तो बस मेरे प्रति स्नेह के अगाध पुष्पों से सजा हुआ है।आपकी वो बात "बेटे,मेरे जाने के बाद मेरी बहुत याद आयेगी तुम्हें देखना!"आज आपकी कोई कही हुई बात नहीं बस एहसास है जो अब भी उस काँधे को तरसता है जहाँ से देखता था मै सारी दुनिया।अब भी उन ऊँगलियों को पकड़ना चाहता है,जिसे थाम कर खुद को सबसे खुशनसीब समझता था।वो डाँट आपकी जिसे सुन बहुत बुरा लगता था,फिर सुनना चाहता हूँ।
जिन्दगी में जिस छावँ के तले पलता हुआ बचपन से अपनी जवानी गुजार दी वो छावँ ही अब मुझे जलन देता है,तपाता है मुझे और मेरे शरीर को और उसे छोड़ काफी दूर निकल जाता हूँ मै।वक्त के पहियों पर दिन-ब-दिन गुजरता रहता है हर पल और अपनी सभी ईच्छाओं को दफन करता जाता हूँ दिल में कही।वो बातें जो बिना आपसे कहे सार्थकता नहीं पाते थे,अब तो बस जुबान से दिल में ही दबे दबे रह जाते है।शायद अब जरुरत नहीं मुझे उस काँधे की,उन ऊँगलियों की जो अब भी बुलाते है मुझे रोज।अब तो मै खुद ही खड़ा-खड़ा देख लेता हूँ सारी दुनिया।


ऐसा लगता है "वक्त ने मुझे बड़ा बना दिया है-पापा"।शायद उतना बड़ा जहाँ से बस लम्बी-लम्बी ईमारते दिखती है।बस सितारों की रौनक दिखती है,पर वो दिल की चाहत नहीं दिखती जो अब भी गले से लगाने को बेकरार है मुझे।जो इतना बड़ा होने पर भी मुझे आज उतना ही छोटा समझता है जितना मै था कल तक।अब भी भीड़ में मै ढ़ुँढ़ता हूँ उस शख्स को जिसकी आँखों में मेरे लिए बस प्यार ही प्यार है।यकीनन वो मेरे पापा ही है,जो आज भी मेरी आँखों से देखते है मुझे और कभी-कभी जो ठोकर लगती है,गिरने को होता हूँ तो थाम लेते है मुझको।और मै कितना भी बड़ा होकर फिर से छोटा बहुत छोटा हो जाता हूँ उनके सामने.....। 

Wednesday, May 11, 2011

अब तो तुम हो साथ मेरे

हरी हरी घासों पे लेटा,खुले आसमान के निचे संसर्ग की उन्मादकता का स्वागत करता मै।तुम्हारी नीली आँखों में गगन की सारी उड़ानों को ढ़ुँढ़ता और तुम्हारे स्पर्श से मेरे रोम रोम में हर्ष की इक नयी कली का मानों प्रस्फुटन होता।तुम्हारे साथ होने का ये आभास कही कोई कोरी कल्पना तो नहीं।खुद को विश्वास दिलाने के लिए बार बार मेरा तुमको किया गया स्पर्श इन मिलन के क्षणों का मूकदर्शक बन जाता।आँखे मूँद कर आज मन के दर्पण को पूर्णतः साफ कर बीते सभी पुराने अतीत की यादों को पोंछ देता और उस दर्पण से साफ साफ देखता सुनहरे भविष्य के आने वाले हर एक पल को जिसमें तुम्हारे साथ मै जिन्दगी के हर एक अधूरे ख्वाबों को गढ़ता जिन्हें पूरा करना अब मेरी जिन्दगी का एकमात्र लक्ष्य था।
सुबह सुबह चिड़ीयों का चहचहाना,कई मिन्नतों के बाद तुमको फिर से पाना और मन की बेसुध बाँसुरी से निकलता वो राग पुराना।सब के सब मिलन के इन क्षणों को एक अलौकिक स्वरुप देते और मेरा प्यार चुपचाप दिल के किसी कोणे से कुछ कहना चाहता।शायद तुम्हें अब साथ देखकर कुछ डर सा हो रहा था उसे क्योंकि जुदाई के हर एक दर्दभरे कल को उसने अपने अस्तित्व की संरचना का एक हिस्सा मान छुपा लिया था खुदमें।उसने ही बस महसूस किया था तुम्हारे विरह की अग्नज्वाल का जिसमें जलता जलता वो अब तो बेरस सा हो गया था।मिलन और जुदाई दोनों एक सा ही लगता था उसे पर आज तुम्हें देख फिर से मानों पा लिया उसने अपना खोया अस्तित्व।
लवों पे आते कितने बात और कितने बात दिल में ही दबे दबे घुटते रहते।पर हम तो कुछ ना कहते अब बस देखते रहते तुमको।तुम्हारे चेहरे पे आयी वो स्वर्णमयी स्याह लकीरें मेरे अंतरमन के सुसुप्त तारों को एकाएक झंकृत करती और तुम्हारे संग का एहसास बुझा देता मेरे मन के प्यास को जो न जाने कितनी सदियों से,कई युगों से तुम्हारे आने की आश लिए जी रहा था।तुम पूछती "क्या तुम्हें याद नहीं अपने प्यार की वो तमाम रातें"?और मै बेचारा कैसे बताता कि उन रातों की यादों के संग ही तो जी रहा था अब तक।तुम्हें क्या पता उन बिते हर एक रातों में तुम ना होकर भी मेरे कितने पास होती थी और मेरा प्यार कैसे तड़पता था तुम क्या जानों।मै तुमसे कहता "तुम्हें याद है सब"।तो तुम बस इतना कहती "हाँ हर एक बात और तुम्हारे प्यार का साथ सब याद है मुझे,कभी नहीं भूल सकती मै"।
आसमां से उतरता कोई फरिश्ता अपने हाथों में दुनिया की सारी खुशियाँ लेकर आता और धिरे से हमारी झोली में रख चला जाता।मै कुछ कदम बढ़ाता तुम्हारी ओर और तुम अब बिल्कुल करीब होती मेरे।माहौल में फूलों की सौरभता सा बिखर जाता यादों का हर एक मंजर जिसमें मिलन और विरह दोनों का समावेश होता।यादों का आईना चकनाचूर हो जाता और हर एक टुकड़े में कही तुम्हारे साथ और कही खुद को अकेला देखता मै।फिर रात आती और थोड़ी बदली बदली सी रंगत के संग एहसास दिलाती कि "अब तो तुम हो साथ मेरे"।
दूर दूर तक कुछ ना दिखता अपने प्यार के सिवा और राहों में बिछा होता सुनहरे प्रेम के प्रणय गीतों में सराबोर तुम्हारे संग का रंगीन चादर।फूल बिछे होते चाँदनी रातों में जब मै तुमसे फिर करता अपने प्यार की दो बातें और तुम बिना कुछ सुने कहती "मुझे तुमसे इतना प्यार क्यों है जानां?"हर पल बस तुम्हारे बारे में सोचती और हर दिन तुमसे मिलने की चाहत लिए दरवाजे पर निगाहें गड़ाये क्यों करती हूँ तुम्हारा इंतजार।और मै बस यही कह पाता "शायद ये प्यार अब कुछ विशेष है,जो विरह की अग्नज्वाल में तप तप कर स्नेह और अनुराग का मिश्रित स्वरुप बन कर प्रेम की प्रकाष्ठा का आलोप है।"इस विशिष्ट प्यार का ही तो परिणाम है कि एक बार फिर तुम हो साथ मेरे।

Tuesday, May 3, 2011

जीवन के वीरान राहों में फिर तुम्हारा साथ चाहिए....

वो राह जीवन का जिसपर हम हमेशा साथ होते थे।मीलों साथ चलते और कुछ ना कहते थे।बस तुम्हारे साथ की खुशी ही तो मुझे लम्बे फासलों के दर्द को भी महसूस नहीं होने देती।रास्ते चलते,हम चलते और समय भी भागता रहता अपनी रफ्तार से बस थमी होती तो ये दिल की धड़कन।लगता ऐसा कि काश यूँही सफर चलता रहता और ना होती कभी भी शहर इस रात की।इस रात में हमदोनों बैठे होते चुपचाप एक दूसरे के सामने और पूछते दिल से दिल की बात।घंटों मौन रहने की आदत जो पहले ना थी मुझमें पर तुमने सीखाया था अपने जाने के बाद।कितने अधूरे और अप्रकाशित ख्वाब मेरे अब भी शायद दिल के किसी कोणे में पड़े इंतजार कर रहे थे स्वयं के पूरे होने का।
प्रिया! क्या तुम भूल गयी वो सारी बातें जो मैने बस तुमसे कहने के लिए सुंदर शब्दों में पिरोकर कागज के टुकड़ों पर बार बार लिखता और मिटाता दिन भर बनाता रहता और रात को तुमसे कहने की कोशिश में घंटों यूँही बिता देता।क्या ये शर्म थी मेरी या ह्रदय की अधीरता जो मै तुम्हें वो कभी ना कह पाता जिसे कहना शायद जरुरी था तुमसे।असंख्य शब्दों के शब्दकोश से बस दो चार गिने चुने ही शब्द चुन पाता जिसे तुम्हारी उपमा से अलंकृत करता।पर फिर भी मेरी विवशता न जाने क्या थी जो उन गिने चुने शब्दों में से भी बस कुछ शब्द ही कह पाता।शायद तुम्हारी उपमा के भाव से परे थे वो शब्द या मेरे लब्जों पे आके संकुचित हो जाते थे वे।वो दूर तक तुम्हारे साथ जाने के लिए मेरा दौड़ा दौड़ा आना और बस तुम्हारे पास आकर इतना कहना "क्या चलोगी तुम साथ मेरे"।इन शब्दों से मै पूछता था क्या वीरान जीवन के इस खामोश सफर में मेरा साथ दोगी तुम।इजहार प्यार का कर तो देता पर शायद तुम मेरे इस अंदाज को समझ ना पाती और बस इस पेड़ से उस पेड़ तक जाती और कहती "हो गया ना"।
यादों के पत्तें अब भी झरते रहते है उस पेड़ से जहाँ से तुम चलती थी साथ मेरे।और मेरी विवशता पे हँसते है वे सारे मौसम जिन्होनें देखा था मुझे साथ तुम्हारे सदियों से सदियों तक।मेरा तुम्हारे साथ चलते जाना और मँजिल पर आकर ये एहसास होना सफर तो खत्म हो गया।कई रोज उन वीरान राहों पे आहटे तुम्हारी आती थी मुझे लगता था कि आज फिर तुम साथ चलोगी मेरे इस पेड़ से उस पेड़ तक।पता है शायद जिन्दगी अब इस पेड़ से उस पेड़ तक ही सीमट के रह गयी है और प्यार के हर एक किस्से मानों इन राहों में ही खुद को ढ़ुँढ़ते फिर रहे हो।वे किस्से जो ना तो कभी कहे मैने तुमसे और ना ही सुना तुमने कभी।वो बस दिल की दहलीज से झाँक कर यादों के मौसम को देख लेते है कभी कभी और अपनी दास्ता बयां करते है खुद ब खुद मेरे दिल में।तुम्हारे साथ की कल्पना में हर पल गुजरे कल में रहना ही आज मेरी पहचान है,शायद वो भूत ही मेरा वर्तमान है।
पतझड़,बसंत और न जाने कितने मौसम ने कई बार मुझे भींगाया है,वो राह भी भींग जाता है और वो दोनों पेड़ जहाँ से चलकर जहाँ तक चलती थी तुम साथ मेरे वो भी अपने पत्तों के संग भींगते रहते है।पतझड़ के बाद नये पत्तें मानों भविष्य की रुपरेखा गढ़ते है और बिखरे हुए सूखे एक पत्तें को सम्भाल कर रख लेता हूँ मै अपने पास।उस एहसास को जो मुझे तुम्हारे साथ होने का झूठा दिलासा दिलाता है और भींग भींग कर पेड़ के सारे पत्तें मेरे अंतर्मन को भी कभी भींगो जाते है।आँखों से कभी बरस लेते है यादों के मोतियों को लुटाते और कभी हँस कर अपना गम भी छुपा लेते है सबसे।अब भी राह देखता है वो सूखता पेड़ शायद तुम्हारे स्पर्श का,अब भी वो राहें सूनसान ही रहती है शायद तुम्हारे बिना।बस एक बार ही उन राहों को आबाद कर दो तुम और वीरान राहों में फिर एक बार मेरे साथ चलो ना इस पेड़ से उस पेड़ तक।आज भी लगता है कि शायद मुझे जीवन के वीरान राहों में फिर तुम्हारा साथ चाहिए।