Monday, March 21, 2011

आज फिर उदासी है तुम बिन

सब तो है आज मेरे साथ,सारी खुशी है मेरे पास,फिर क्यों है इतनी उदासी?बिल्कुल उदास जीवन निरसता का मानों पर्याय बना गया हो।तुम बिन वो चीज जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी,अब नहीं अच्छी लगती।कुछ भी तो नहीं भाता तुम बिन।बस एक तन्हाई ही साथी सा है मेरा अब,जो अपनी झोली में मेरी खातिर उदासीयाँ भर लाता है।अकेला मै और न जाने कहाँ अकेली तुम।अब तो कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हें मेरी उदासी या खुशी से।अब तो भूल गई हो तुम सब कुछ।
हर शाम यादों को लाती और न चाहते हुये भी उदासी मुझे घेर लेती।बिल्कुल अकेला खड़ा मै अपने जीवन के वीरान राहों पे बड़ा उदास हो जाता।आँखे कभी कभी ढ़ुँढ़ती तुम्हें यहाँ वहाँ पर फिर बेचारी थक कर सो जाती।सुबह से रात तक कितने ख्वाब संजोता मै परन्तु फिर रात का डरावना ख्वाब सब चकनाचूर कर देता।चाहता मै कुछ प्रणय गीत लिखूँ आज पर क्या करुँ उदासी भरे नगमें ही बना पाता।चाहता आज लिखूँ उस क्षण के बारे में जब तुम मिली थी मुझे पहली बार,पर हर बार वो आखिरी रात ही याद आता मुझे और उदास जिंदगी की तन्हा राहों पर फिर अकेला बेसुध सा मै चल पड़ता ढ़ुँढ़ने तुम्हें।
इक कमी जिसके पूरे होने का स्वप्न मै रोज देखता,पता है वो तुम्हारा अभाव ही है मेरे जीवन में।बहुत सी बातें कहने को जी में आता,पर कहाँ आती हो तुम अब पास उन्हें सुनने।मै अब कैसा हूँ,जानती हो,क्या कोई परवाह नहीं तुम्हें?पर कभी तो बड़ी चिंता होती थी तुम्हें मेरी खातिर।पर क्या अब जमाना बदल गया इतनी जल्दी।तुम कहती मुझसे अपने दिल की बात और मै तुम्हें ढ़ाँढ़स बँधाता।अब क्या कोई बात तुम्हारे दिल में नहीं पलते या मुझसे कहना अच्छा नहीं लगता।
कभी कभी अजनबी बनने की तुम्हारी कोशिश हर बार हमे और करीब लाती और आज क्यों इतने करीब होकर भी हम एक दूसरे को पहचान नहीं पा रहे।कुछ तो है तुम्हारे दिल में जो मुझसे कहना चाहती हो अब भी तुम।पर मेरी उदासी तो मानों मुझे बिल्कुल अकेला और एकाकी बना दिया है।अब खुद से पूछता,खुद पे हँसता और कभी कभी पागलों की तरह तुमसे बात भी कर लेता।इक झुठी तसल्ली दे देता दिल को पर फिर उदासी अपना दामन फैला कर समेट लेती मुझे खुद में।


साँसे तो चलती रहती पर ऐसा लगता अब भी धड़कन तुम्हारे दिल में ही धड़क रही हो।क्योंकि काबू नहीं रह पाता अपनी धड़कनों पर।तुम बिन कई सदियाँ यूँही उदास बीत जाती,कितने मौसम यूँही तपाते,बरसते और मुझे कई बार भींगा के चले जाते।तुम बिन बस इक तुम्हारी ही तमन्ना जीवन का लक्ष्य होती और आखिरी साँस में भी तुमसे मिलने की झुठी ख्वाहिश करती।
तुम नहीं आती,न मै ही तुमसे मिल पाता और बस इक उदास जिंदगी में तन्हाईयों से ही दोस्ती करने की कोशिश करता।तुमको उन उदास पलों में कभी छत पे अकेली खड़ी देख तुम्हारे पास जाता और फिर तुम गुम हो जाती।कभी तुम्हें उस झील के किनारे बैठा देखता और आँखों में मेरे इंतजार की बेचैनी तुम्हारे लाख छुपाने पर भी झलक जाती।कभी तुम्हें अपनी उदास जिंदगी में हर उन राहों पे खड़ी देखता जहाँ मेरा अकेलापन मुझे बिल्कुल अधीर बना देता और तुम्हारा साथ जीवन का सच्चा साथी होता।तु्म्हारे इंतजार में फिर भोर होती और फिर रात को बिस्तर पर कई घंटे बस तु्म्हारे बारे में सोचता रहता और फिर वही पुरानी उदासी घेर लेती मुझे चारों तरफ से और मै अकेला बिल्कुल अकेला हो जाता सब के बीच तुम बिन।  

Thursday, March 17, 2011

बस यूँ ही

शायद तुम्हे है पता कि मै "बस यूँ ही" नहीं लिखता।शायद तुम जान सकती हो मुझे और समझ सकती हो,कि हमारा वजूद "बस यूँ ही" नहीं है।इन आसान से लब्जों से कई बार तुमने अपने दिल में उमरते तूफान को छुपा लिया था,कई बार आँखों ही आँखों में सूख गयी थी आँसूओं की वो बरसात।और तुमने ये कह कर हर बार टाल दिया था मुझे "बस यूँ ही"।घर के कोणे वाले उस कमरे में छुप छुप कर तुम क्या करती थी?आँसूओं को यूँ ही बहाती और यादों के हर एक लम्हें को जीती रहती।
बस कुछ पल का साथ ही तुम्हारा "बस यूँ ही" सारी जिंदगी का हमसफर माँगता था मुझसे पर मेरी असमर्थता को शायद ही कोई समझे।मै चाहता कर दूँ अपनी तमाम जिंदगी बस तुम्हारे नाम।हर साँस के हर पोर में बस समा जाओ तुम और नजरों से जहाँ तक देख सकूँ मै,बस तुम्ही दिख जाओ।कितनी बातें करुँ तुमसे पर वो जो कुछ अनकही है हमारे बीच वो कैसे बयां हो पाये?कहने से भला कह सकता दिल की बात तो कब का कह दिया होता,पर उन बेजुबान लब्जों को शब्द देना मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल था।कभी ऐसा लगता मेरी ईशारों में मेरा इजहार तुम तक पहुँच गया है,पर फिर नादान दिल की बेचैनी लब्जों पे आकर ही टीक जाती और मै गुमशुम सा सोचता रहता क्या करुँ?


मजबूरियों में बँधे हम दोनों,अपनी मजबूरी की दास्ता बयां भी नहीं कर पाते और भावनाओं के खेल में उलझे उलझे "बस यूँ ही" गमों के सैलाब में कभी कभी डुबकी लगा लेते।तुमसे मै पूछता क्यों तुमको इतना ख्याल है मेरा,क्यों तुम मुझसे बातें करती हो और जानती हो तुम कि मै ना आऊँगा कभी,फिर भी इंतजार करती हो मेरा।और तुम तो बस एक शब्द कहती "बस यूँ ही" और सच में "बस यूँ ही" जिंदगी से मुलाकात हो जाती हमारी उस रोज।
तुमको ऐसे पाने की चाहत और तेरी खातिर बस जख्मी दिल को राहत।एहसास कराता मुझे शायद तुम हो कही साथ मेरे।ऐसा लगता कि कोई बड़ा पुराना नाता है तुमसे,जो मुझे बार बार खिंच कर लाता है तुम्हारे पास वरना दो पल की बातचीत कभी भी जिंदगी की कहानी सी नहीं लगती।मेरी भावनायें तुम समझ जाती बिन कहे और तुम्हारी भावनाओं को मै महसूस करता और जब दिल पूछता आखिर ये क्या है,तो धीरे से कह देते उससे "बस यूँ ही"।तुम "बस यूँ ही" बस जाती मेरे जेहनोदिल में और इतेफाक से ही इक नयी दुनिया के हमसाये से बन जाते हम दोनों।
अपनी भावनाओं पर काबू पाना शायद तुमने ही सिखलाया था मुझे और आज जब मै दूर जा रहा हूँ तुमसे तो कहती हो "वापस आ जाओ ना"।भला क्यों आऊँ मै तुम्हारे पास,जबकि जानता हूँ कुछ नहीं है हमारे बीच वो तो "बस यूँ ही" है।तुम जानती हो ये जो बात है ना "बस यूँ ही" बिल्कुल वैसा ही है,जैसे हम किसी संवेदना को महसूस करते है पर देख नहीं पाते।नहीं होता पता हमे उसके पीछे का सच।क्या सम्मोहन होता इन बातों में वो तो बस वो ही जान पाता,जो बार बार दुहराता इन शब्दों को।
मै जानता हूँ बेवजह ही तुम इंतजार कर रही होगी मेरा "बस यूँ ही"।पर जानती हो मै सच कहूँ ये इंतजार बड़ा प्यारा होता है।तुम्हारे बिन तुम्हारी यादों के सायों के संग जीना तो बड़ा ही खुबसुरत एहसास होता है।चलो कोई बात नहीं हम नहीं है आपके पर बस इक गुजारिश है इस पागल दिल की "बस यूँ ही" बेवजह ही मिलती रहना तुम हर रोज,ताकि जिस जिंदगी को छोड़ के बड़ी दूर जाना चाहता था मै।"बस यूँ ही" उसे पाने की इक झूठी तमन्ना दिल में पालता रहूँ सारी उम्र।  

Wednesday, March 9, 2011

अब भी कुछ बाकी है शायद

मेरे खुद के अंतरमन में उलझे हुये मेरे सवाल अब मानों खुद ही अपने जवाब से विमुख होकर,एक संशय सा बन गये है।मौन,खामोशि और चुप्पी ये जो बिल्कुल शांत और गम्भीर भाव है,अब मुझे बेवजह ही चिल्लाने को मजबूर कर रहे है।वेदना और अंतरमन की पीड़ा का मिश्रित स्वरुप न चाहते हुए भी आँसू बन कर जगजाहिर होना चाहते है।अपने आप पर भी तो विश्वास ना रहा,तो भला इन आँसूओं का क्या पता कब ये राज-ए-दिल खोल दे।और सदियों से जो जख्म दफन था मेरी धड़कनों में,जिसका वजूद मेरे अस्तित्व की सम्पूर्णता का बोध कराता था और जो दर्द मुझे हर पल जीने की एक नयी प्रेरणा देता था।वो जख्म फिर से यादों की पोटली में सना एक घाव बन कर मेरे सामने आ जाये।
मैने सीखाया था तुम्हें प्यार करना पर खुद शायद प्यार निभाना सीख ना पाया।बादलों की गोद में मेरा प्यार चाँद सा अठखेलियाँ लेता मानों लुकछीप का कोई खेल,खेल रहा हो मेरे साथ।कभी तुम्हारी आँखों मे अपना चेहरा देखता और कभी तुम्हारी नजरों से खुद को देखने की कोशिश करता।बड़े मजबूर और असहाय से मेरे हाथ हर बार कोशिश करते तुम्हारी हाथों को थामने की पर बेचारे न जाने किस अनहोनी की आशंका से भयभीत रहते।तुमसे कहना चाहते कुछ मेरे अंदर के भाव पर सामने पाकर तुम्हें सब भूल जाते और भावविभोर होकर आत्मसात कर लेते मिलन के हर एक क्षण को।


चुपके चुपके दुरी का एहसास और जुदाई का भय मेरे जेहन में एक अजीब सा डर पैदा कर देते थे।शाम होना,सूरज का डुबना और फिर एक घनघोर अँधेरी रात जिसका सुबह होता ही नहीं।ख्वाब का आना,टुट जाना फिर भी ये भ्रम की "अब भी कुछ बाकी है शायद"।टुटे ख्वाबों के भी सच होने का इंतजार करना और रात के अँधेरे में भी सूरज की चाहत करना मेरे लिए तो बस आम बात हो गयी थी।
प्रेम के तस्वीरों से गढ़ा हुआ अपना आईना आज चूर-चूर हो चुका है,पर फिर भी हर टुकड़े में ही तुम्हारी तस्वीर देखता और अचानक चूभ जाता एक काँच का टुकड़ा मेरे हाथों में और मेरे खुन से लाल हो जाता फर्श।शायद एहसास दिलाता "अब भी कुछ बाकी है शायद"।ये थोड़ा सा जो भी बाकी है,वो ही तो मेरे जीवन के बुझे हुए दिये में कुछ तेल सा है और मेरे मन की सूनी बागवानी का दो चार फूल है,जो कभी कभी वही खुशबु पैदा करता है जो तुम्हारे करीब होने से महसूस करता था मै।


जीवन का सफर अब बस मेरी खातिर इक बोझ ढ़ोने जैसा हो गया है।बेमन से और बेवजह ही अपने साँसों को इक दिशा देने की कोशिश कर रहा हूँ मै।जमाने वालों को लगता है "अब भी कुछ बाकी है शायद" और मेरे सब खो जाने की पीड़ा का एहसास तो खुद मूझे भी आज तक नहीं हो पाया है।क्यों मिला संसार मुझको पूरा भरा-भरा सा पर इक संसार को पाने के वास्ते खो दिया मैने इक दुजा संसार।वही जो था मेरे प्यार का संसार।खुशबु की वादियों में प्यार का मौसम।मै तुम्हारे सामने और तुम मेरे सामने।गुमशुम से रहते कुछ पल और कुछ पल बुनने लगते अपने ख्वाबों की दुनिया।कभी हँसते और खिलखिलाते हम दोनों और कभी कही छुप-छुप कर एकांत में आँसू भी बहा लेते।
सब कुछ खत्म हो जाने के बाद भी "अब भी कुछ बाकी है शायद"।शायद वो तुम्हारी यादें है,शायद वो तुम्हारी सूरत है मेरी आँखों में बसी या शायद वो मेरा अपना वजूद ही है,जिसमे जिंदा हो आज भी तुम और आँसू हर पल बह कर यही बतलाते रहते है "अब भी कुछ बाकी है शायद"।मेरी धड़कनों में जो साँस चलती है,मेरी चाहतों में जो ख्वाब पलती है और कभी कभी जो बेमौसम ही मेरी रग-रग दिवाली हो जाती है,तुम्हारी यादों की जगमगाती फुलझड़ीयों से तो लगता है "अब भी कुछ बाकी है शायद"।और वो जो कुछ भी अभी बाकी है मुझमें,वही तो हमारे गुजरे अनोखे प्यार की सम्पूर्णता है।

Monday, March 7, 2011

प्रेम की जननीः-नारी

आदि से लेकर अंत तक,सृजन से प्रलय की आखिरी वेला तक।कुछ हो या ना हो पर "प्रेम" एकमात्र शाश्वत और सर्वविदित है।प्रेम के अभाव में ना तो सृष्टि की कल्पना ही कि जा सकती है और ना ही संसार के कालपुरुष का दर्शन।वैमनस्व,घृणा और ईर्ष्या जो भी प्रेम के विरोधी तत्व है,उनका भी अस्तित्व प्रेम के अस्तित्व में होने पर ही सार्थक है।यदि प्रेम नहीं है तो वैर भी नहीं है।क्योंकि प्रेम का ही अभाव और नाश वैरता को जन्म देता है।
प्रेम जगत का सर्वाधिक कोमल,सार्थक और संवेदनशील भाव है,जिसके बिना सारी सृष्टि निरर्थक है।यदि प्रेम के उद्भव और उत्पति पर दृष्टि डाले तो प्रेम बस स्त्री तत्व के ममत्व का ही दुसरा स्वरुप है।इक नारी के ह्रदय सरिता से छलकने वाले कुछ बूँद ही प्रेम की संज्ञा पाते है।विशाल ह्रदय धारण करने वाली नारी,अपने ह्रदयाकाश में संवेदनाओं और भावनाओं में लिपटे एक अनोखे प्रेम को छिपा के रखती है।नारी के बिना सृष्टि सम्भव नहीं है,और प्रेम बिना सृष्टि का संतुलित संचालन।नारी के प्रेम से ही सिक्त बाल्यमन प्रेम की प्रतिमूर्ति बन जाता है।नारी सृष्टि की सबसे कोमलतम ह्रदय को धारण करने वाली होती है।प्रेम की जननि होती है नारी जो कि प्रेम का ही इक मूर्त स्वरुप होती है।


सृष्टि का एक ऐसा भाव जिसके बस में इंसान क्या भगवान भी मानव तन धारण करते है और उस जननि के कोख से उत्पन्न हो खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।नारी ही सृष्टि है,संहार है,द्वेष है और प्यार है।उग्र रुप धारण करने पर यही रौद्र चण्डी हो जाती है,और सौम्य रुप में ये प्रेम की जननि,प्रेम की पावन गंगा सी बहती रहती है।जिस गंगा में डुबकी लगा नर और नारायण दोनों अपने अस्तित्व के धूमिलता को दूर करते है।


नारी शब्द का शाब्दिक अर्थ हैः-"न+अरि"।अर्थात जिसका कोई शत्रु ना हो,वही नारी है।भला जननि से शत्रुता कैसी,माँ से वैर कैसा?नारी कई रुपों में बस प्रेम का संचालन करती है।माँ बन कर प्रेममयी आँचल में लोरी सुनाती है,पत्नी बन जीवन के हर सुख दुख में साथ निभाती है।बहन बन भाई के रक्षा हेतु वर्त रखती है,तो पुत्री स्वरुप हमारे घर में लक्ष्मी का पदार्पण कराती है।नारी जगत की आधारभूत सता होती है,जो समस्त समाज और राष्ट्र को इक अनोखे डोर में बाँध कर रखती है,जो प्रेम होता है।


बहशी पुरुष वैर का वाहक बन कर नारी पर कई जुल्म करता है,पीड़ा पहुँचाता है उसको।पर नारी तो बस प्यार ही प्यार लुटाती है।पता नहीं कितना विशाल और व्यापक होता है नारी ह्रदय जिसमे पूरी सृष्टि को देने योग्य प्रेम समाया होता है।नारी और पुरुष जीवन रुपी सवारी के दो पहियें होते है।एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं।पर "प्रेम की जननि" ये नारी सम्पूर्ण सृष्टि की इकलौती नवनिर्माणात्री होती है।


नारी पूज्यनीया है,साक्षात ईश्वर का स्वरुप है नारी और प्रेम सृष्टि का अग्रदूत।नारी ही प्रेम की वीणा के हर तार को झंकृत करने की क्षमता रखती है,जिसका संगीत जीवनामृत बन कर इक नयी जीवन की कल्पना को साकार करता है।नारीत्व ना तो नारी की विवशता है,वो तो ममत्व की पहचान है,और प्रेम की आशक्ति है।नारी इकलौती सृष्टि की सृजनदायिनी है,उसके अस्तित्व को नकारना खुद के अस्तित्व को नकारना जैसा है।नारी ही प्रेम है और प्रेम ही नारी के ममत्व का स्वरुप। 

Sunday, February 27, 2011

सपने ने डरा दिया था मुझे

पूरा जिस्म काँपने लगा,एक अजीब सी घबड़ाहट होने लगी,साँसे फूल गयी,और मै मानों दौड़ता भागता एक भयानक सपने को पीछे छोड़ जाग गया।बड़ा ही डरावना और भययुक्त था,वो सपना उस रात का।सपने में देखा मैने अपने वजूद का जुदा होना और तुम्हारा मुझसे दूर जाना।बिल्कुल असहाय सा चिल्लाता रहा,अपने जिंदगी को खुद से जुदा होते देखता रहा,और कुछ ना कर सका।अचानक ख्वाब टुटा और खुद को फर्श पर पाया,न जाने कैसे जुदा हो गया मुझसे तेरे प्यार का साया।जागने पर एहसास हुआ उस भयानक सपने के टुटने का और तसल्ली मिली तुम्हारे साथ होने का।
यथार्थ से बिल्कुल उल्टा और मीलों दूर होती है सपनों की नगरी।इंसान सपने संजोता है,खुश होता है,और उसके टुट जाने पर खुद भी टुट कर बिखर जाता है।इक स्वप्न निंद के आगोश में ही पैठ बनाता है,और दूसरा वो स्वप्न होता है जिसे इंसान अपनी जागती हुई आँखों से देखता है।रात का ख्वाब टुटता है और इंसान ये कह कर दिल को तसल्ली दे लेता है,कि वो तो बस मेरा एक भ्रम था।एक सैर थी मेरे स्थूल शरीर और विचारों की मिथ्याकाश में।पर जब टुटता है,व्यक्ति का दिवा स्वप्न तो वो बिल्कुल अधीर हो जाता है।क्योंकि न चाहते हुए भी उसे सत्य की चादर में समेटने की कोशिश करता है इंसान।
आज फिर टुट गएँ मेरे कई ख्वाब एक साथ और तुमसे जुदाई का डर सताने लगा।आज सच में मुझे बेवजह ही उस रात के सपने पर विश्वास होने लगा।कभी कभी प्यार का अनोखा एहसास होता और कभी जुदाई का भयावह डर सताता।बिल्कुल किसी असहाय प्रेमी की भाँति मेरा प्रेम भी अब समाज की कुंठित मान्यताओं की बलि चढ़ने वाला था।पर चाह कर भी तुमसे एक पल भी जुदा होना मेरे लिएँ गँवारा न था।तुम्हारा प्रीत भले आज कच्चे धागों में बदल गया हो,पर मेरे प्रीत की डोर तो अब भी बिल्कुल वैसी ही है,जेसी हुआ करती थी पहले।


बस गिने चुने दिन ही गुजार पाया था मै संग तुम्हारे और अचानक एक भयंकर तूफान सा ले के आया मेरी जिंदगी में आज का वो स्वप्न।जिन हाथों को थामा था मैने,जिन पलकों पर हौले से अपने कुछ अधूरे ख्वाबों को पनाह दी थी।जिन होंठों पर थे हमारे प्रीत के गीत।वो सब जुदा कर बैठा था मेरा वो भयानक स्वप्न।अभी तो अच्छे से एक बार तुम्हारी आँखों को भी नहीं देखा था।जिन आँखों की गहराई में ही कही डूबने की तमन्ना थी,उन्ही आँखों से बहते अस्क देख कर मै तो बिल्कुल लाचार हो गया था।जिन होंठों से तुम्हारे अपने प्रणय गीतों को सुनकर अपने आप में ही खो जाता था और खुद में उन्हें महसूस करने लगता था,उन होंठों से पीड़ा भरे स्वर कैसे सुन पाता मै?
यूँ तो टुट जाता है सपना,पर सच में अगर ऐसे ही रुलायेगा वो तुमको,तो मै खुद ही तोड़ दूँगा उसे।मिटा दूँगा अस्तित्व उसका और अगर वो ना मिटा तो मिटा दूँगा खुद का वजूद बस एक तुम्हारी खुशी के वास्ते।नहीं डरता मै सपनों की झुठी कहानियों से,नहीं भ्रमा सकता कोई ख्वाब मुझे और मेरे प्यार को।जिन लोगों का सदियों से सदियों का साथ हो उनके लिए कई बरस बिताना,तो बस दो पल बिताने जैसा है।तुम्हारे गोद में पड़ा हुआ मै समय के सारे बंधनों से आज दूर चला आया हूँ।एक साया मेरा और दूसरा तुम्हारा बस साथ अपने लाया हूँ।दूर तक नहीं कोई,बस तुम्ही मुझे दिख जाती हो।कभी पास हो और कभी दूर से मुझे बुलाती हो।
यकीन हुआ आज उस ख्वाब पर जो कई बरस पहले देखा था मैने और टुटने पर उसके दिल को एक सुकुन सा मिला था।पर आज जब नहीं हो तुम,ना इस जहाँ में और ना उस जहाँ में।तब उस झूठे ख्वाब पर भरोसा हो आया है।आज सच में छिन लिया है उसने मुझसे,तुमको और मेरे सपने ने डरा दिया है मुझे।अब बस यही सोचता हूँ ऐसे ही किसी सपने में फिर मिल जाती तुम और टुटते हुएँ उस सपने में ही बस कुछ टुकड़ों में ही फिर से जी लेता मै कई सदियाँ तुम्हारे साथ.......। 

Sunday, February 20, 2011

तुम्हारे वो गीत याद है मुझे

जब कभी सुनता हूँ वो गीत याद आने लगती हो तुम।उस गीत से जुड़ी है तुम्हारी यादें।साधारण सा इक गीत बस तुम्हारी होंठों का स्पर्श पाकर इक विशिष्ट सा हो गया था मेरे लिए।जमाने के लिए वो गीत होगा कोई मधुर संगीत सा पर मेरे लिए तो वो प्राण श्वासों से निकलने वाला जीवन संगीत था।जो हर पल मेरी धड़कनों के संग प्रवाहीत होकर मेरे वजूद का तुम्हारे प्रीत की लय पर समर्पित होना बताता था।जब कभी सुनता हूँ कही भी,किसी वक्त सारा माहौल बिल्कुल बदल जाता है और इक अदृश्य सी सुनहरी चादर ओढ़े तुम्हारी यादें मुझे अपने आगोश में लेने लगती है और सपनों की दुनिया में खड़ी कही तुम किसी परी सी अपने पास बुलाती हो।मै दौड़ा दौड़ा जाता हूँ तुम्हारे पास और जब तुम्हे छूने की सारी कोशिशे व्यर्थ हो जाती है,तभी जाग जाता हूँ निंद से।
संगीत से सनी गीत में कैद तुम्हारी यादें मेरे लिए प्रेम रस में डुबे वैसे गीत है,जिसे एक बार सुनने के बाद बार बार उसे ही सुनने को जी करता है।उस गीत से होती मेरी सुबह और मेरी शाम।उस गीत पे मानों लिखी हो हमारे प्रीत के सुनहरे गुजरे दिनों के नाम।वो गीत मानों मेरी रुह से समा जाती हो हौले से मेरे जेहनोदिल में और पुकारती हो मुझे "आ जाओ ना तुम"।
मन करता फिर खींच लाऊँ उन पलों को अतीत से और तुम्हें दुल्हन बना ले आऊँ अब तो।पर मेरी विवशता तब एहसास कराती है,उस गीत का होना....पर तुम्हारे ना होने का।


आज तुम नहीं हो,पर दो बोल तुम्हारे गीतों के याद है मुझे।जिसे मैने बड़ी संजीदगी से छुपा लिया था उस रात जब तुमने इन्हें गुनगुनाया था।तुम गाती थी और मै खो जाता था कही।उस वक्त पता नहीं चला कि न जाने कितना सम्मोहन था तुम्हारे उन गीतों में,जो अब से कई सालों बाद भी इक अनोखी डोर में बाँध कर रखेगा मुझे।शायद वही है वो दिल के तार जिनसे इन गीतों का मधुर स्वर तुम्हारे पास से मेरे पास आ जाता है कभी कभी।
गीत की हर पंक्ति पूछती है शायद मुझसे,कि क्या अब तुम्हें मन नहीं करता फिर से उन दिनों में लौटने को।पर बेचारे इन गीतों को क्या पता है हम इंसानों की लाचारी।हमारे विवशता को तो बस रात के सुनसान सन्नाटे और जिंदगी के खामोश सफर ही समझ सकते है।इन गीतों को क्या पता मौन का एकाकीपन।


काश कोई समझ सकता इस मौन की चुप्पी के पीछे का रहस्य।क्यों बोले वो,कितना बुलाया,कई बार आवाज लगाया।कितने दिनों तक लगातार तुम्हें पुकारता रहा,पर जब उसे विश्वास हो गया अब तो सब व्यर्थ है।हो गया शांत और रहने लगा मौन।
तुम्हारे वो गीत पूछते है मुझसे "आ जाओ ना,मै कब से राह देख रही हूँ"।पर तुम कहा कहती हो अब आने के लिए।काश कभी ऐसा होता उन गीतों से होकर तुम्हारी कही कुछ बातें भी मेरे कानों को छुकर निकल जाती।तब तो जीवन का मेरा संगीत पूर्णरुपेण और सार्थक हो पाता।तुम अपने उन गीतों से कभी मेरे पास आती और कुछ बातें कर फिर लौट जाती।


शायद उस वक्त जब मै अपने जीवन के अंतिम पलों में जी रहा होऊँगा।तुम्हारे ये गीत मुझे फिर लौटने को कहेंगे गुजरे दिनों में।थोड़ा दुख तो होगा पर इक संतुष्टि होगी मुझे मरने के बाद ही सही पर,उस क्षण गीत के संग उसके उस गायक से भी मुलाकात हो जायेगी मेरी।छोड़ गया था जो मुझे मेरे जीवन के सफर में तन्हा मुझे और मै तुम्हे भर लूँगा बाहों में और एक गुजारिश मेरे दिल की तब भी तुमसे होगी "सुनाओ ना वो गीत फिर से एक बार" और तुम फिर से कई सदियों पुरानी वो अपने प्यार का राग छेड़ देती और आँखों से आँसू बरसने लगते तुम्हारे और गला भी भर जाता और वो गीत तुम्हारी भर्रायी हुई आवाज में मानों इस जमाने से कहता "हमने अपना प्यार पा लिया,मर के ही तो क्या हुआ.....पर जिंदगी तो मिल गई ना............।  

Monday, February 14, 2011

प्यार की वो आखिरी रात

सहम गया था मै अंदर तक बस तुम्हारी एक बात सुनकर "मुझे भूल जाओ,हमारा साथ शायद इतना ही था अब कल से हम नहीं मिल सकते।"मानों ऐसा लगा कि कोई जोर का तूफान आया हो मेरे जीवन में जो अंदर तक जाने कहा तक मुझे झकझोर के रख दिया।कुछ भी कहने की स्थिती में था मै,सब कुछ तो कह दिया था तुमने ये कह कर "मुझे भूल जाओ।"
 हर रोज तुम मिलती और एक नये एहसास के साथ हमारे प्यार की मानों रोज एक नये सिरे से शुरुआत होती।कुछ तुम कहती,कुछ मै कहता।कुछ तुम सुनती,कुछ मै सुनता।ना ही समय की पाबंदी होती और ना ही कोई भी होता हमारे प्यार के बीच।पर आज क्यों इक मौन की नजर लग गयी थी हमारे प्यार के हलचल में।होंठ कुछ बोलते ना थे,पर बेचारे आँख खुद पर काबु ना रख पाये।बहने लगी धार आँसूओं की और भींग गया मेरा अंतरमन पूरे अंदर तक।

आज क्यों ना जाने बस दो पग की अपनी दूरी हजारों मीलों के फासलों जैसा लगा।सीमट गई सारी दूरी बस इक मेरे दायरे में और मै चाह के भी ना छु सका तुम्हे।इक अजीब सी खामोशी कही से के बस गयी थी हमारे प्यार के खिलखिलाते घर में।बस दो शब्दों ने तबाह कर दिया था अपने सपनों का रँगीला भविष्य।
 यादें झाँकती और हर पल नजरों के सामने वो सारी बाते तुम्हारी किसी चलचित्र की भाँति उमरने लगती।कानों में मेरे गूँजने लगता तुम्हारा वो स्नेहभरा प्रेम पूर्ण शब्द "मै तुमसे प्यार करती हूँ।"बस इतना सुनते ही रोमांचित हो जाता मेरा रोम रोम और घुलने लगती प्यार की इक भींगी खुशबु।ऐसा प्रतीत होता कि मै दुनिया का सबसे खुशनसीब हूँ जो मुझे कोई प्रेम करने वाला मिला है।कोई है जिसे बस मेरी चिंता है।मेरी खुशी में वो हँसती है,और गम में आँसू बहाती है।

हर रोज की भाँति आज शाम को भी तुमसे मिलने निकल पड़ा मै और तुम भी मेरे इंतजार में पहले से खड़ी थी।पर मुझे कहा ये पता था कि आज तुम्हारे इतने करीब होकर भी मै तुमसे बहुत दूर हो गया था।मैने तुम्हारे चेहरे पे उभरी हुई सिकन की लकीरे देख ली थी।मैने पूछा तुमसे क्या बात है,क्यों उदास हो तुम?कुछ देर तक तुमने कुछ ना कहा और फिर तुम्हारे दो शब्द "मुझे भूल जाओ" कही अंदर तक झकझोरते रहे मुझे।मुझे नहीं पता कि ये तुम्हारी विवशता थी या और कुछ।मेरे पास नहीं थे शब्द,कि मै तुमसे पूँछु कि तुमने क्यों कहा ये शब्द?

बस एक प्रश्न मेरे जेहन में छा सा गया।क्या भूल गयी तुम वो सारी वादे,कसमें अपने प्यार की।मै तुम्हारे लिए सबकुछ था और तुम थी मेरे लिए सबकुछ मेरी जिंदगी।पर जाने क्यों आज हमारा प्यार बिल्कुल मजबूर होकर रह गया था।खुद खुद बिना जाने कोई कारण तुम्हारी इस विवशता का मेरे पाँव मुड़ गये लौटने की राह में।आँखों में आँसू,दिल में तुम्हारा प्यार और यादों में गुजरा हुआ हर क्षण समेट लाया मै।
 उस रात जाने क्यों बड़ा बेबश हो गया था मै।चाह कर भी ना पूछ पाया तुमसे कुछ और।असमर्थ था किसी से क्या कहता अपनी प्यार की दास्ता।कभी बस ये सोच के कि तुमसे जुदा होकर मुझे रहना होगा।मेरा ह्रदय बड़ा भयभीत हो जाता।और आज उसी बुरे सपने में जी रहा था मै।तुम अब नहीं मिलोगी मुझसे,तुम अब नहीं बात करोगी मुझसे।कैसे रह पाऊँगा मै अब तुम्हारे बिन यही सोचता सोचता उस रात मै खुद में बिल्कुल बेबश सा होकर रह गया।वो आखिरी रात हमारे प्यार की मुझे मेरे जीवन का अवसान लगने लगा।एक समय पहली बार मिली थी तुम मानों जिंदगी मिल गयी थी।और आज बस तुम्हारे दो शब्दों ने मुझे और हमारे प्यार को लाकर खड़ा कर दिया प्यार के उस आखिरी रात में।