आदि से लेकर अंत तक,सृजन से प्रलय की आखिरी वेला तक।कुछ हो या ना हो पर "प्रेम" एकमात्र शाश्वत और सर्वविदित है।प्रेम के अभाव में ना तो सृष्टि की कल्पना ही कि जा सकती है और ना ही संसार के कालपुरुष का दर्शन।वैमनस्व,घृणा और ईर्ष्या जो भी प्रेम के विरोधी तत्व है,उनका भी अस्तित्व प्रेम के अस्तित्व में होने पर ही सार्थक है।यदि प्रेम नहीं है तो वैर भी नहीं है।क्योंकि प्रेम का ही अभाव और नाश वैरता को जन्म देता है।
प्रेम जगत का सर्वाधिक कोमल,सार्थक और संवेदनशील भाव है,जिसके बिना सारी सृष्टि निरर्थक है।यदि प्रेम के उद्भव और उत्पति पर दृष्टि डाले तो प्रेम बस स्त्री तत्व के ममत्व का ही दुसरा स्वरुप है।इक नारी के ह्रदय सरिता से छलकने वाले कुछ बूँद ही प्रेम की संज्ञा पाते है।विशाल ह्रदय धारण करने वाली नारी,अपने ह्रदयाकाश में संवेदनाओं और भावनाओं में लिपटे एक अनोखे प्रेम को छिपा के रखती है।नारी के बिना सृष्टि सम्भव नहीं है,और प्रेम बिना सृष्टि का संतुलित संचालन।नारी के प्रेम से ही सिक्त बाल्यमन प्रेम की प्रतिमूर्ति बन जाता है।नारी सृष्टि की सबसे कोमलतम ह्रदय को धारण करने वाली होती है।प्रेम की जननि होती है नारी जो कि प्रेम का ही इक मूर्त स्वरुप होती है।
सृष्टि का एक ऐसा भाव जिसके बस में इंसान क्या भगवान भी मानव तन धारण करते है और उस जननि के कोख से उत्पन्न हो खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।नारी ही सृष्टि है,संहार है,द्वेष है और प्यार है।उग्र रुप धारण करने पर यही रौद्र चण्डी हो जाती है,और सौम्य रुप में ये प्रेम की जननि,प्रेम की पावन गंगा सी बहती रहती है।जिस गंगा में डुबकी लगा नर और नारायण दोनों अपने अस्तित्व के धूमिलता को दूर करते है।
नारी शब्द का शाब्दिक अर्थ हैः-"न+अरि"।अर्थात जिसका कोई शत्रु ना हो,वही नारी है।भला जननि से शत्रुता कैसी,माँ से वैर कैसा?नारी कई रुपों में बस प्रेम का संचालन करती है।माँ बन कर प्रेममयी आँचल में लोरी सुनाती है,पत्नी बन जीवन के हर सुख दुख में साथ निभाती है।बहन बन भाई के रक्षा हेतु वर्त रखती है,तो पुत्री स्वरुप हमारे घर में लक्ष्मी का पदार्पण कराती है।नारी जगत की आधारभूत सता होती है,जो समस्त समाज और राष्ट्र को इक अनोखे डोर में बाँध कर रखती है,जो प्रेम होता है।
बहशी पुरुष वैर का वाहक बन कर नारी पर कई जुल्म करता है,पीड़ा पहुँचाता है उसको।पर नारी तो बस प्यार ही प्यार लुटाती है।पता नहीं कितना विशाल और व्यापक होता है नारी ह्रदय जिसमे पूरी सृष्टि को देने योग्य प्रेम समाया होता है।नारी और पुरुष जीवन रुपी सवारी के दो पहियें होते है।एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं।पर "प्रेम की जननि" ये नारी सम्पूर्ण सृष्टि की इकलौती नवनिर्माणात्री होती है।
नारी पूज्यनीया है,साक्षात ईश्वर का स्वरुप है नारी और प्रेम सृष्टि का अग्रदूत।नारी ही प्रेम की वीणा के हर तार को झंकृत करने की क्षमता रखती है,जिसका संगीत जीवनामृत बन कर इक नयी जीवन की कल्पना को साकार करता है।नारीत्व ना तो नारी की विवशता है,वो तो ममत्व की पहचान है,और प्रेम की आशक्ति है।नारी इकलौती सृष्टि की सृजनदायिनी है,उसके अस्तित्व को नकारना खुद के अस्तित्व को नकारना जैसा है।नारी ही प्रेम है और प्रेम ही नारी के ममत्व का स्वरुप।
प्रेम जगत का सर्वाधिक कोमल,सार्थक और संवेदनशील भाव है,जिसके बिना सारी सृष्टि निरर्थक है।यदि प्रेम के उद्भव और उत्पति पर दृष्टि डाले तो प्रेम बस स्त्री तत्व के ममत्व का ही दुसरा स्वरुप है।इक नारी के ह्रदय सरिता से छलकने वाले कुछ बूँद ही प्रेम की संज्ञा पाते है।विशाल ह्रदय धारण करने वाली नारी,अपने ह्रदयाकाश में संवेदनाओं और भावनाओं में लिपटे एक अनोखे प्रेम को छिपा के रखती है।नारी के बिना सृष्टि सम्भव नहीं है,और प्रेम बिना सृष्टि का संतुलित संचालन।नारी के प्रेम से ही सिक्त बाल्यमन प्रेम की प्रतिमूर्ति बन जाता है।नारी सृष्टि की सबसे कोमलतम ह्रदय को धारण करने वाली होती है।प्रेम की जननि होती है नारी जो कि प्रेम का ही इक मूर्त स्वरुप होती है।
सृष्टि का एक ऐसा भाव जिसके बस में इंसान क्या भगवान भी मानव तन धारण करते है और उस जननि के कोख से उत्पन्न हो खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।नारी ही सृष्टि है,संहार है,द्वेष है और प्यार है।उग्र रुप धारण करने पर यही रौद्र चण्डी हो जाती है,और सौम्य रुप में ये प्रेम की जननि,प्रेम की पावन गंगा सी बहती रहती है।जिस गंगा में डुबकी लगा नर और नारायण दोनों अपने अस्तित्व के धूमिलता को दूर करते है।
नारी शब्द का शाब्दिक अर्थ हैः-"न+अरि"।अर्थात जिसका कोई शत्रु ना हो,वही नारी है।भला जननि से शत्रुता कैसी,माँ से वैर कैसा?नारी कई रुपों में बस प्रेम का संचालन करती है।माँ बन कर प्रेममयी आँचल में लोरी सुनाती है,पत्नी बन जीवन के हर सुख दुख में साथ निभाती है।बहन बन भाई के रक्षा हेतु वर्त रखती है,तो पुत्री स्वरुप हमारे घर में लक्ष्मी का पदार्पण कराती है।नारी जगत की आधारभूत सता होती है,जो समस्त समाज और राष्ट्र को इक अनोखे डोर में बाँध कर रखती है,जो प्रेम होता है।
बहशी पुरुष वैर का वाहक बन कर नारी पर कई जुल्म करता है,पीड़ा पहुँचाता है उसको।पर नारी तो बस प्यार ही प्यार लुटाती है।पता नहीं कितना विशाल और व्यापक होता है नारी ह्रदय जिसमे पूरी सृष्टि को देने योग्य प्रेम समाया होता है।नारी और पुरुष जीवन रुपी सवारी के दो पहियें होते है।एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं।पर "प्रेम की जननि" ये नारी सम्पूर्ण सृष्टि की इकलौती नवनिर्माणात्री होती है।
नारी पूज्यनीया है,साक्षात ईश्वर का स्वरुप है नारी और प्रेम सृष्टि का अग्रदूत।नारी ही प्रेम की वीणा के हर तार को झंकृत करने की क्षमता रखती है,जिसका संगीत जीवनामृत बन कर इक नयी जीवन की कल्पना को साकार करता है।नारीत्व ना तो नारी की विवशता है,वो तो ममत्व की पहचान है,और प्रेम की आशक्ति है।नारी इकलौती सृष्टि की सृजनदायिनी है,उसके अस्तित्व को नकारना खुद के अस्तित्व को नकारना जैसा है।नारी ही प्रेम है और प्रेम ही नारी के ममत्व का स्वरुप।
2 comments:
प्रेम के अभाव में न तो सृष्टि की कल्पना ही कि जा सकती है और न ही संसार के कालपुरुष का दर्शन......
नारी ही प्रेम है और प्रेम ही नारी के ममत्व का स्वरुप....
नारी के स्वरुप पर बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन के लिए बधाई।
बहुत सुंदर सार्थक आलेख ....
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