मै भी एक इंसान हूँ इस भीड़ भार की दुनिया में।मेरे अंदर भी भाव है,संवेदना है बिल्कुल औरों की तरह।मै इक पुरुष हूँ जो मुझे पुत्र और पिता होने का श्रेय देता है।पुत्र हो या पिता,हूँ तो इक पुरुष ही।पर क्यों ऐसा लगता है कि इक माँ का दिल मेरे जेहन में कही बसा है।जो चाहता है अपने सम्पूर्ण ममत्व को अपने औलाद पर उड़ेल देना।खुब सारा प्यार करना और अपनी छाती से उसे चिपका लेना।
पर कुछ ऐसी असमर्थता महसूस होती है,जो मेरे स्नेह और ममता को निरर्थक सा बना देती है।चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाता मै अपनी दबी दबी सी भावनाएँ।शायद इसलिए की मै पुरुष हूँ।क्या कहेंगे लोग,दुनिया क्या कहेगी?क्या पत्थर दिल बनकर कठोर भावों के साथ जीता मै अपने पुरुषार्थ को पुरस्कृत कर पाऊँगा।क्या मेरा पुरुषार्थ मेरी विवशता है।जो मेरे अंदर के स्नेह को जगजाहीर नहीं होने देती।मेरा ह्रदय भी बिल्कुल स्वच्छंद और उन्मुक्त होकर खुले गगन में पँख फैला कर उड़ना चाहता है।पर रोक देती है मेरी विवशता मुझे।कहती है तु पुरुष है कठोर बन।पत्थर दिल होना क्या पुरुषार्थ का द्योतक है।
मेरी भावना और प्रेम क्या ममत्व के बहाव का आस्वादन नहीं कर सकता या खुद को मुक्त नहीं कर सकता दुनिया की मनगठंत मानसिकता में।
पुरुषार्थ पुरुष को कभी असहाय नहीं बना सकता।वो तो इक आत्मबल है,सबल है,जो हमको इक पिता बनाता है।पर वह कभी भी पुरुष की विवशता का सूचक नहीं हो सकता।
मै चाहूँ तो जो करुँ।मन करे तो धरा में ना पावँ रखुँ,गगन को ना देखुँ।कभी बादलों के पार चला जाऊँ,कभी समुद्र को अपने नयनों में भर लाऊँ।मेरा पुरुषार्थ मेरी इच्छाओं के गले नहीं घोट सकता।वह तो मुझमें मेरी ईच्छाओं का वाहक होना चाहिए न कि मेरी विवशता की पहचान।
मेरा पुरुषार्थ तब सार्थक होगा पूर्णरुपेण जब वो अपनी दबी हुई कामनाओं को मूर्त रुप दे सके।वो मुझमे इक पिता सा तो होता ही है साथ ही इक माँ के दिल को भी परवरिश देता है।माँ का ममत्व भी झलकता है जब मेरे पुरुषार्थ में तब मेरा पुरुषार्थ,मेरी विवशता ना रहकर मेरा सबल बन जाता है।अपनी मनोदशा को खुलकर व्यक्त करता है और भावों के सागर में बेझिजक गोते लगाता है।अपने समक्ष स्नेह की मूर्ति को देख हिचकिचाता नहीं,बल्कि उसे गोद में उठा दुलारता है,प्यार देता है।
पर कुछ ऐसी असमर्थता महसूस होती है,जो मेरे स्नेह और ममता को निरर्थक सा बना देती है।चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाता मै अपनी दबी दबी सी भावनाएँ।शायद इसलिए की मै पुरुष हूँ।क्या कहेंगे लोग,दुनिया क्या कहेगी?क्या पत्थर दिल बनकर कठोर भावों के साथ जीता मै अपने पुरुषार्थ को पुरस्कृत कर पाऊँगा।क्या मेरा पुरुषार्थ मेरी विवशता है।जो मेरे अंदर के स्नेह को जगजाहीर नहीं होने देती।मेरा ह्रदय भी बिल्कुल स्वच्छंद और उन्मुक्त होकर खुले गगन में पँख फैला कर उड़ना चाहता है।पर रोक देती है मेरी विवशता मुझे।कहती है तु पुरुष है कठोर बन।पत्थर दिल होना क्या पुरुषार्थ का द्योतक है।
मेरी भावना और प्रेम क्या ममत्व के बहाव का आस्वादन नहीं कर सकता या खुद को मुक्त नहीं कर सकता दुनिया की मनगठंत मानसिकता में।
पुरुषार्थ पुरुष को कभी असहाय नहीं बना सकता।वो तो इक आत्मबल है,सबल है,जो हमको इक पिता बनाता है।पर वह कभी भी पुरुष की विवशता का सूचक नहीं हो सकता।
मै चाहूँ तो जो करुँ।मन करे तो धरा में ना पावँ रखुँ,गगन को ना देखुँ।कभी बादलों के पार चला जाऊँ,कभी समुद्र को अपने नयनों में भर लाऊँ।मेरा पुरुषार्थ मेरी इच्छाओं के गले नहीं घोट सकता।वह तो मुझमें मेरी ईच्छाओं का वाहक होना चाहिए न कि मेरी विवशता की पहचान।
मेरा पुरुषार्थ तब सार्थक होगा पूर्णरुपेण जब वो अपनी दबी हुई कामनाओं को मूर्त रुप दे सके।वो मुझमे इक पिता सा तो होता ही है साथ ही इक माँ के दिल को भी परवरिश देता है।माँ का ममत्व भी झलकता है जब मेरे पुरुषार्थ में तब मेरा पुरुषार्थ,मेरी विवशता ना रहकर मेरा सबल बन जाता है।अपनी मनोदशा को खुलकर व्यक्त करता है और भावों के सागर में बेझिजक गोते लगाता है।अपने समक्ष स्नेह की मूर्ति को देख हिचकिचाता नहीं,बल्कि उसे गोद में उठा दुलारता है,प्यार देता है।
2 comments:
vicharon ko jagata ,bhavon ko prastut karta aalekh .badhai .
वर्तमान युवापीढ़ी इस व्यामोह से निकल रही है और अपने पिता होने के कर्तव्य को बखूबी निभा रही है।
Post a Comment