शिव विष से नहीं डरते पर भक्तों की अमृतमय स्नेहमाधुरी का रसपान कर मतवाले हो जाते है।विकराल अघोरी शिव के भयंकर स्वरुप के समक्ष भय भी भयभीत हो जाता है और प्रचण्डता भी काँपने लगती है।जगत का अहंकार चकनाचूर होने लगता है और अपने अस्तित्व के आधार शिव के समक्ष वह नतमस्तक हो जाता है।कठोरता के आवरण में जो वात्सल्य की छाया है वह बस शिव रुपी कल्पतरु ही प्रदान कर सकती है।महाकाल में ही महाकाली का भी स्वरुप निहीत है और महाकाली के स्नेह से ही महाकाल का प्रस्फुटन।शिव और शक्ति कभी भी एक दूसरे से पृथ्थक नहीं है।शिव है तो शक्ति है,पराक्रम है,साहस है और ओज है।वैसे ही शक्ति है तो जीव भी शिव के समान है।अर्थात दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना अधूरा लगता है।
जगत की सृष्टि हेतु काल का वह क्षण जब निराधार अनंत ब्रह्मांड की केंद्र पटल पर दो दिव्य शक्तियाँ एकाकार होती है,काल का प्रारम्भ कहलाता है।जब महाकाल,महाकाली के समक्ष होते है और आकर्षण बिन्दू चरम पर होता है।तब जगत में इंसानियत की नींव पड़ती है।जब दोनों के साँस टकराते है,तब संसार में प्राणश्वासों का प्रवाह होता है और जब महाकाली के अधरों पर महाकाल का प्रेमपूर्ण चुम्बन होता है,तो सृष्टि में प्रेम का स्फुटन प्रारम्भ होता है।जैसे-जैसे यह मिलन की आद्वितीय वेला अपने चरमोत्कर्ष पर होती है,वैसे-वैसे सृष्टि का सर्जन होता रहता है।
ठीक इसके विपरीत काल का वह क्षण जब महाकाल रुठ जाते है महाकाली से सृष्टि के प्रलय का प्रारम्भ होता है।प्राणवायु रुक जाती है,सब कुछ स्थिर हो जाता है और मोह का व्याप्क आवरण भंग होने लगता है।प्रेम अब घृणा का स्वरुप धर कर महाविनाश की ओर उद्धत होता है।और सृष्टि के प्रलय के साथ ही महाकाल और महाकाली का यह मिथ्या विरह दम्भ खत्म हो जाता है और फिर दोनों जुड़ जाते है सर्जन में।ना जाने यह कितनी बार होता है और कितनी बार आता है सृष्टि और प्रलय?महाकाल की प्रेम क्रीड़ा के बस दो आयाम होते है "सृष्टि और प्रलय" जो मनुष्य के अस्तित्व की कहानी रचते है।
शिव का स्वरुप निराला है और शिव का चिंतन ही ज्ञान।शिव के गले में लिपटा भुजंग और इनकी सवारी वृषभ दोनों एक दूसरे के शत्रु प्रजाति है,पर शिव के समक्ष प्रेमरत है सब।शिव का स्वरुप सामंजस्य और नेतृत्व की अनूठी मिशाल है।जटे में समाहित गंगा सबको पावन करने वाली है और प्यास बुझाने वाली है।मस्तक पर आद्य चंद्र शीतलता,कोमलता और स्नेह का परिचायक है।व्याघ्र चर्म का आसन यह संदेश प्रेषित करता है कि अपनी ताकत पे स्वयं का वश हो और उस पर स्वामी विराजमान हो सके।हाथ में विद्यमान त्रिशुल की तीन शंकुएँ सुख,दुख और संतुष्टि है।जो बताती है कि दुख पीड़ा का क्षण है पर सुख,दुख का ही एक स्वरुप।बस समझने की आवश्यक्ता है फिर तो सुख के मूल में भी छिपा दुख का आवरण निर्वस्त्र हो जायेगा और नंगी आँखों से भी दिखने लगेगा।सांसारिक प्राणी बस सुख को ही देख पाता है परन्तु वैरागी और संन्यासी वही है,जो सुख के मूल में छुपे दुख को देख सतर्क हो जाता है।त्रिशुल का तिसरा शंकु संतुष्टि है।यह वह स्थिती है जब मनुष्य को ज्ञात हो जाये कि सुख,दुख क्या है?अर्थात दोनों बस माया है।सुख भी सीमीत है और दुख उसकी परछायी।परन्तु अपने सामर्थय में ही आनंद की प्राप्ति संतुष्टि है।यही अंतःकरण की तृप्ति है।शिव के हाथों में डमरु और शिव का नटराज स्वरुप नृत्य और संगीत का उद्भव है।संगीत के सुरों का आरम्भ यही से है और शिव का तांडव ही ह्रदय तारों का कम्पण है।जिससे हर क्षण हमारी ध्मनियों में रक्त का प्रवाह होता रहता है।
शिव का रहन-सहन,वेश-भूषा बिल्कुल वैरागी है।पर दाता का सामर्थय रुप में नहीं है,वो तो कार्य में दृष्टिगोचर होता है।खुद भांग,धतूरा और गंगाजल से तृप्त होने वाले शिव स्वयं पर राख लपेटे हमारी किस्मत का लेखा-जोखा करते है।शिव "भोले-भाले" है।अर्थात प्रेम के समक्ष शिव का भोलापन मनोहारी है और घृणा के सामने भाले के जैसे विध्वंसकारी।हर समय ध्यान में मग्न शिव का स्वरुप जगत की सृष्टि हेतु हितकारी है।ध्यान वही है जहाँ ज्ञान है और जब ज्ञान है तो दान है।ये सब शिव के अनंत स्वरुप में दृष्टिगोचर है।वे आदिदेव है।अर्थात ना उनका कोई आरम्भ है और ना ही अंत।वो कब से है?शायद तब से जब काल का लेखा-जोखा भी ना हो।वही जगत का सार है।जिसके स्वरुप का मंथन ही सच्चा ज्ञान है और सत्य की पहचान है।
जीव की सार्थकता इसी में है,कि शिव रुपी अमृतवर्षा में वह पूर्णरुपेण भींग जाये।तन और मन को इस तरह भींगो ले कि हर अवसाद और क्लेश मिट जाये हर जन्म का।आध्यात्मिक एकाग्रता और व्याप्कता की नींव है शिव।शिव तथ्य है जिसका मूल है ज्ञान।तीव्र पवन के झोंको में समाहीत आवेग का हर एक प्रवाह बस शिव से सम्बंधित है।सृष्टि के हर पहलु का तार बस शिव रुपी युग्म से जुड़ा है।जहाँ शिव की अनंत सिंधु में ज्ञान और प्रेम का जल ही जल भरा हुआ है।शिव को समझना ही शिव को पूजने जैसा है।पुरुष रुपी शिव मातृत्व के अद्भूत वात्सल्य को समेटे है खुद में।जिसकी गोद में जीव को वह सुख प्राप्त होता है।जहाँ वह काल के हर एक बंधन से मुक्त होकर बस शिव में एकाकार होना चाहता है।जीव से शिव का वह मिलन कल्याणकारी है,जहाँ पशुपति शिव के समक्ष सम्पूर्ण जीवधारी नतमस्तक है और शिव ब्रह्मांड की तत्क्षण सर्जना को धारण किये हुये है।
8 comments:
bahut hi sundar aur chitre bhi bahut sundar
सत्यम जी,
सावन का माह का आया आपकी भक्ति भावना ने ब्लॉग जगत को आध्यात्म के रंग में पूर्ण रूपेण रंग दिया है बहुत खूब सूरती से आपने सृष्टि के आरम्भ ओर अंत के विषय में अपने विचार प्रगट किये हैं ओर शिव तत्त्व के विषय में भी बताया है .बहुत बहुत आभार.
सुंदर चित्र मन मोह गए ...सत्यम ! सावन की इस मधुर बेला में शिव का प्रलय रूप और स्रष्टि रचना ..क्या कहने ...
बहत ही दिव्य और अलौकिक प्रस्तुति
शव के गले म िलपटा भुजंग और इनक सवार वृषभ दोन एक दूसरे के शु जाित है,पर िशव के सम ेमरत है सब.
aapki prastuti aaj sawan ke pahle somwar (monday) ko prabhu ke aashirbachao jaisi lagi.
Jai bhole shankar.
सुन्दर एवं ज्ञानप्रद आलेख ! बहुत बहुत धन्यवाद !
गहन चिन्तनयुक्त शोधात्मक लेख....
सुंदर रचना
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